ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 2
यत्रा॒ नर॑: स॒मय॑न्ते कृ॒तध्व॑जो॒ यस्मि॑न्ना॒जा भव॑ति॒ किं च॒न प्रि॒यम् । यत्रा॒ भय॑न्ते॒ भुव॑ना स्व॒र्दृश॒स्तत्रा॑ न इन्द्रावरु॒णाधि॑ वोचतम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । नरः॑ । स॒म्ऽअय॑न्ते । कृ॒तऽध्व॑जः । यस्मि॑न् । आ॒जा । भव॑ति । किम् । च॒न । प्रि॒यम् । यत्र॑ । भय॑न्ते । भुव॑ना । स्वः॒ऽदृशः॑ । तत्र॑ । नः॒ । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । अधि॑ । वो॒च॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रा नर: समयन्ते कृतध्वजो यस्मिन्नाजा भवति किं चन प्रियम् । यत्रा भयन्ते भुवना स्वर्दृशस्तत्रा न इन्द्रावरुणाधि वोचतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । नरः । सम्ऽअयन्ते । कृतऽध्वजः । यस्मिन् । आजा । भवति । किम् । चन । प्रियम् । यत्र । भयन्ते । भुवना । स्वःऽदृशः । तत्र । नः । इन्द्रावरुणा । अधि । वोचतम् ॥ ७.८३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्र) यस्मिन्सङ्ग्रामे (नरः) मनुष्याः (कृतध्वजः) उच्छ्रायितध्वजाः (समयन्ते) सुष्ठु आयान्ति (यस्मिन्, आजा) यत्र सङ्ग्रामे (किञ्चन, प्रियम्, भवति) किञ्चित् सुखं स्यात् (यत्र) यस्मिन्सङ्ग्रामे प्रबला योद्धारः (भयन्ते) बिभ्यति तथा च (स्वर्दृशः, भुवना) यत्र देवाः स्वर्गप्राप्तिं न बहु मन्यन्ते (इन्द्रावरुणा) भो युद्धकुशला विद्वांसः ! (तत्र) तस्मिन्सङ्ग्रामे (नः) अस्मान् (अधिवोचतम्) सविस्तरमुपदिशत ॥२॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यत्र) जिस संग्राम में (नरः) मनुष्य (कृतध्वजः) ध्वजा उठाते हुए (समयन्ते) भले प्रकार आगमन करते, (यस्मिन्, आजा) जिस संग्राम में (किंचन, प्रियं, भवति) कुछ सुख हो, (यत्र) जिस संग्राम में बड़े-बड़े योद्धा (भयन्ते) भयभीत होते और (स्वर्दृशः, भुवना) जहाँ देवता लोग स्वर्गप्राप्ति को अधिक नहीं मानते, (इन्द्रावरुणा) हे युद्धविद्या में निपुण विद्वानों ! (तत्र) वहाँ (नः) हमको (अधिवोचतं) भले प्रकार उपदेश करें ॥२॥
भावार्थ
जिस संग्राम में शत्रु लोग ध्वजा उठाते हुए हम पर आक्रमण करते हों अथवा जिस संग्राम में हमारा कुछ प्रिय हो, या यों कहो कि जब शत्रु हम पर चढ़ाई करें वा हम दुष्टों के दमन अथवा प्रजा का प्रिय करने के लिए शत्रु पर चढ़ाई करें, हे अस्त्रशस्त्रवेत्ता विद्वानों ! उक्त दोनों अवस्थाओं में आप हमारी शत्रु से रक्षा करें ॥ तात्पर्य्य यह है कि राजपुरुषों की सहायता के बिना प्रजा में कदापि सुख उत्पन्न नहीं हो सकता, इसीलिए मन्त्र में राजपुरुषों की सहायता वर्णन की गई है कि वे राजपुरुष आपत्तिकाल में उपदेशों तथा शस्त्रों द्वारा हमारी रक्षा करें ॥२॥
विषय
संग्राम के दो नायक इन्द्र, वरुण ।
भावार्थ
( यत्र ) जिस संग्राम में ( कृत-ध्वजः नरः ) झण्डे हाथ लिये नाना नायक जन ( सम् अयन्त ) एक साथ प्रयाण करते हैं और ( यस्मिन् आजा) जिस संग्राम में (किंचन प्रियं भवति) शायद कुछ ही प्रिय होता हो अर्थात् ( किं च प्रियं न भवति ) कुछ भी प्रिय नहीं होता, ( यत्र ) जहां ( स्वर्दृशः ) सूर्यवत् तीव्र तीक्ष्ण दृष्टि वाले तेजस्वी पुरुष से ( भुवना ) समस्त श्लोक, प्राणी (भयन्ते ) भय करते हैं ( तत्र ) ऐसे संग्राम के अवसरों में ( इन्द्रा वरुणा ) इन्द्र, वरुण नाम पदाधिकारी जन ( नः अधि वोचतम् ) हम लोगों के अध्यक्ष होकर आज्ञा, शासन आदि किया करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, ३, ९ विराड् जगती। २,४,६ निचृज्जगती। ५ आर्ची जगती। ७, ८, १० आर्षी जगती॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
संग्राम में ध्वज लेकर प्रयाण
पदार्थ
पदार्थ - (यत्र) = जिस संग्राम में (कृत-ध्वजः नरः) = झण्डे हाथ में लिये नायक जन (सम् अयन्त) = एक साथ प्रयाण करते हैं और (यस्मिन् आजा) = जिस संग्राम में (किं च न प्रियं भवति) = शायद कुछ ही प्रिय होता हो, (यत्र) = जहाँ (स्वर्दृशः) = सूर्यवत् तीक्ष्ण दृष्टिवाले तेजस्वी पुरुष (भुवना) = समस्त लोक, प्राणी (भयन्ते) = भय करते हैं (तत्र) = ऐसे संग्रामों में (इन्द्रा-वरुणा) = इन्द्र, नाम पदाधिकारी जन (नः अधि वोचतम्) = हमारे अध्यक्ष होकर शासन आदि करें। वरुण
भावार्थ
भावार्थ- इन्द्र और वरुण-राजा और सेनापति अपने ध्वज लेकर संग्रामों में विजय के लिए प्रयाण करें। इससे समस्त प्रजाजन इन दोनों का सम्मान करेंगे।
मन्त्रार्थ
(इन्द्रावरुणा नरा युवाम्) हे विद्युदस्त्रप्रयोक्ता विद्युद्वत् प्रहारक सेनानायक और वारणशक्तिसम्पन्न सेनाध्यक्ष जनो तुम्हारे में 'युवां युवयोः' विभक्तिव्यत्ययश्छान्दसः' (प्राचा-आप्यं पश्यमानासः) प्राक् सामने से अर्थात् साक्षात् श्राप्तव्य सम्बन्ध पद एवं अपनापन देखते हुए सैनिक जन (गव्यन्तः-ययुः) तुम्हारे आदेशानुसार अपनी राष्ट्रभूमि को चाहते हुए युद्ध में चल पडे-चल पडते हैं-"गौः पृथिवीनाम" (निघं० १।१) 'क्यजन्तः प्रयोगः' (दासा वृत्त्रा च-आर्याणि च हतम्) जबकि हमारे सत्कर्मनाशक दल तथा आक्रमण से घैरनेवाले पापीजन नागरिक को है पूषा ! सूर्य या पशुखाद्ययातायातमन्त्री प्राप्त करा ॥२॥
विशेष
ऋषिः– वसिष्ठः (राजपरिवार, राजसभा और प्रजाजनों में अपने विद्यागुणों से अत्यन्त वसने वाला सर्वमान्य विद्वान्) देवता- इन्द्रवरुणौ देवते (मेघताडक इन्द्र- विद्यत् "यदशनिरिन्द्रः") (कौ० ६।९) उसका प्रयोक्ता उस जैसी शक्तिवाला संहारक सेनानायक और वरुण आकाश में फैलकर रहने वाले सूक्ष्म जल“अपः–यच्च वृत्वाऽतिष्ठस्तद्वरुणोऽभवत्तं वा एतं वरणं सन्तम् वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण" (गो० पू० १।७) उसका प्रयोक्ता शत्रुप्रहारवारक स्वसेना का रक्षणकर्मनिधायक नीतिज्ञ सेनाध्यक्ष।
इंग्लिश (1)
Meaning
Where the leading brave of the nation meet with banners in hand, where there would be but little good in battle or in contest, where the people of the earth quake with fear though they see the light and joy of heaven otherwise, of that, O Indra and, Varuna, speak to us.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या युद्धात शत्रू ध्वज घेऊन आमच्यावर आक्रमण करतात किंवा ज्या युद्धात आम्हाला सफलता प्राप्त होते. शत्रू आमच्यावर चढाई करतात किंवा आम्ही दुष्टांचे दमन अथवा प्रजेचे हित करण्यासाठी शत्रूवर चढाई करतो तेव्हा हे अस्त्र शस्त्र विद्वानांनो! वरील दोन्ही अवस्थांमध्ये तुम्ही शत्रूपासून आमचे रक्षण करा.
टिप्पणी
तात्पर्य हे, की राजपुरुषांच्या साह्याशिवाय प्रजेमध्ये सुख उत्पन्न होत नाही. मंत्रात राजपुरुषांच्या सहायतेचे वर्णन केलेले आहे. राजपुरुषांनी आपत्तीकाळात उपदेश व शस्त्रांद्वारे आमचे रक्षण करावे. ॥२॥
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