ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 4
इन्द्रा॑वरुणा व॒धना॑भिरप्र॒ति भे॒दं व॒न्वन्ता॒ प्र सु॒दास॑मावतम् । ब्रह्मा॑ण्येषां शृणुतं॒ हवी॑मनि स॒त्या तृत्सू॑नामभवत्पु॒रोहि॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑वरुणा । व॒धना॑भिः । अ॒प्र॒ति । भे॒दम् । व॒न्वन्ता॑ । प्र । सु॒ऽदास॑म् । आ॒व॒त॒म् । ब्रह्मा॑णि । ए॒षा॒म् । शृ॒णु॒त॒म् । हविआ॑मनि । स॒त्या । तृत्सू॑नाम् । अ॒भ॒व॒त् । पु॒रःऽहि॑तिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रावरुणा वधनाभिरप्रति भेदं वन्वन्ता प्र सुदासमावतम् । ब्रह्माण्येषां शृणुतं हवीमनि सत्या तृत्सूनामभवत्पुरोहितिः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रावरुणा । वधनाभिः । अप्रति । भेदम् । वन्वन्ता । प्र । सुऽदासम् । आवतम् । ब्रह्माणि । एषाम् । शृणुतम् । हविआमनि । सत्या । तृत्सूनाम् । अभवत् । पुरःऽहितिः ॥ ७.८३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रावरुणा) भो राजधर्मपालका विद्वांसः ! यूयम् (वधनाभिः) अनेकविधैः शस्त्रैः (अप्रतिभेदम्) दुर्वार्यशत्रून् (वन्वन्ता) हिंसन्तः (सुदासम्) अतिशयेन नम्रीभूतं राजानं (आवतम्) प्राप्नुत (एषाम्, तृत्सूनाम्) एषां विदुषां (ब्रह्माणि) वेदपाठान् (शृणुतम्) आकर्णयन्तः (पुरोहितिः) हितकारिणो भवत, येन (हवीमनि) यज्ञे (सत्या, अभवत्) सत्यस्वरूपं फलमुत्पद्यताम् ॥४॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्रावरुणा) हे राजधर्म का पालन करनेवाले विद्वानों ! तुम (वधनाभिः) अनन्त प्रकार के शस्त्रों द्वारा (अप्रतिभेदं) प्रबल शत्रुओं को (वन्वन्ता) हनन करके (सुदासं, आवतं) भलीभाँति नम्रभाव को प्राप्त राजा को प्राप्त होओ और (एषां, तृत्सूनां) इन विद्वानों के (ब्रह्माणि) वेदपाठों को (शृणुतं) श्रवण करते हुए (पुरोहितिः) हितकारी बनो, जिससे (हवीमनि) यज्ञों में (सत्या, अभवत्) सत्यरूप फल हो ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा आज्ञा देते हैं कि हे राजपुरुषो ! तुम वेद से बहिर्मुख शत्रुओं का हनन करके वेदवेत्ता विद्वानों का सत्कार करो और निरन्तर हित करते हुए उनके सत्सङ्ग से अपने जीवन को उच्च बनाओ, उनके यज्ञों की रक्षा करो, जिससे उनका सत्यरूप फल प्रजा के लिए शुभ हो ॥४॥
विषय
भेदनीति और सदुपाय का उपदेश ।
भावार्थ
हे (इन्द्रावरुणा ) शत्रु का हनन करने और वारण करने वाले वीर पुरुष वर्गो ! आप दोनों ( वधनाभिः ) शत्रु को दण्ड देने और नाश करने वाली नीतियों से और सेनाओं से (अप्रति ) अप्रत्यक्ष रूप से ( भेदं ) शत्रु को छिन्न भिन्न और फूट फाट (वन्वन्ता) करते हुए वा (भेदं वन्वन्ता ) राष्ट्र भेदकशत्रु को नाश करते हुए ( सु-दासम् ) शुभ दानशील, उत्तम भृत्यादि से युक्त राजा की ( प्र अवतम् ) अच्छी प्रकार रक्षा करो । ( हवीमनि ) परस्पर प्रतिस्पर्द्धा करने योग्य संग्राम में ( एषां ) इन विद्वान् प्रजाजनों के (ब्रह्माणि) उत्तम ज्ञान-वचनों को ( शृणुतं ) श्रवण करो । (तृत्सूनां ) शत्रुओं को मार गिराने वाले इन वीर सैन्यों की और संशयोच्छेदी विद्वानों की ( पुरोहितिः ) सबसे आगे स्थिति और अग्रासन पदपर विराजना (सत्या अभवत् ) सत्य, सफल और सज्जनों के लिये हितकारी हो ।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, ३, ९ विराड् जगती। २,४,६ निचृज्जगती। ५ आर्ची जगती। ७, ८, १० आर्षी जगती॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
सेना का कर्त्तव्य
पदार्थ
पदार्थ- हे (इन्द्रावरुणा) = शत्रु का हनन और वारण करनेवाले वीर वर्गो! आप दोनों (वधनाभिः) = शत्रु को दण्ड देने और नाश करनेवाली नीतियों और सेनाओं से (अप्रति) = अप्रत्यक्ष रूप से (भेदं) = शत्रु को छिन्न-भिन्न (वन्वन्ता) = करते हुए, वा (भेदं वन्वन्ता) = राष्ट्र-भेदक शत्रु का नाश करते हुए (सु-दासम्) = शुभ दानशील भृत्यादि से युक्त राजा की (प्र अवतम्) = अच्छी प्रकार रक्षा करो। (हवीमनि) = परस्पर प्रतिस्पर्द्धा-योग्य संग्राम में (एषां) = इन विद्वान् प्रजाजनों के (ब्रह्माणि) = ज्ञानवचनों को (शृणुतं) = सुनो। (तृत्सूनां) = शत्रुओं को मार गिरानेवाले वीर सैन्यों और संशयोच्छेदी विद्वानों की (पुरोहितिः) = सबसे आगे स्थिति और अग्रासन पर विराजना (सत्या अभवत्) = सफल हो ।
भावार्थ
भावार्थ-सेना को योग्य है कि वह युद्धों में शत्रु नाशक नीति को अपनाते हुए राजा की यत्न पूर्वक रक्षा करे। और प्रजाजनों द्वारा दी गई सूचनाओं को विद्वान् जन राजा तक पहुँचावें। इस प्रकार राजा और विद्वान् दोनों का सम्मान होवे।
मन्त्रार्थ
(उग्र) हे तेजस्वी पूषा- सूर्य या पशुखाद्ययातायातमन्त्री ! तू (वाजसातये) अन्नसम्भक्ति इतस्ततः से अन्नप्राप्ति के लिए "वाजोऽन्नम्" (निघ० २।७) तथा 'श्लेष से' संग्राम में भाग लेने के लिये- संग्राम में लडने जाने के लिये "वाजे संग्रामनाम" (निघ० २।१७) (पथ:-विचिनुहि) मार्गों अनेक मार्गों को पृथक् पृथक् कर-पृथक् पृथक् बना स्वप्रकाश से या स्वज्ञान से (मृध:-विजहि) संग्रामों-संग्रामों में शत्रुओं को स्थानच्युत कर दे- तितर-बितर कर दे- अस्त व्यस्त करदे अस्त्र प्रयुक्त होकर या अस्त्र का प्रयोग करके (नः-धियसाधन्ताम्) हमारे कर्म "धी: कर्मनाम" (निघ० २।१) सिद्ध हों "कर्मणि कंतृप्रत्ययः" ॥४॥
विशेष
ऋषिः– वसिष्ठः (राजपरिवार, राजसभा और प्रजाजनों में अपने विद्यागुणों से अत्यन्त वसने वाला सर्वमान्य विद्वान्) देवता- इन्द्रवरुणौ देवते (मेघताडक इन्द्र- विद्यत् "यदशनिरिन्द्रः") (कौ० ६।९) उसका प्रयोक्ता उस जैसी शक्तिवाला संहारक सेनानायक और वरुण आकाश में फैलकर रहने वाले सूक्ष्म जल“अपः–यच्च वृत्वाऽतिष्ठस्तद्वरुणोऽभवत्तं वा एतं वरणं सन्तम् वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण" (गो० पू० १।७) उसका प्रयोक्ता शत्रुप्रहारवारक स्वसेना का रक्षणकर्मनिधायक नीतिज्ञ सेनाध्यक्ष।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra and Varuna, leading warrior and enemy destroyer and saviour and rebuilder, facing and breaking the difficult enemy lines of offence with fatal weapons, protect the generous ruler of the land. In this strife of battle, listen to the earnest voices of the priests engaged in yajnic development of the nation, and let the priest like prophecy and expectations of the people seeking peace and freedom come true.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आज्ञा देतो, की हे राजपुरुषांनो! तुम्ही वेदाद्वारे बहिर्मुख शत्रूंचे हनन करून वेदवेत्त्या विद्वानांचा सत्कार करा व त्यांचे निरंतर हित करून त्यांच्या सत्संगाने आपले जीवन उच्च बनवा. त्यांच्या यज्ञांचे रक्षण करा. ज्यामुळे त्यांचे सत्यरूप फल प्रजेसाठी शुभ व्हावे. ॥४॥
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