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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 84/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒वो रा॒ष्ट्रं बृ॒हदि॑न्वति॒ द्यौर्यौ से॒तृभि॑रर॒ज्जुभि॑: सिनी॒थः । परि॑ नो॒ हेळो॒ वरु॑णस्य वृज्या उ॒रुं न॒ इन्द्र॑: कृणवदु लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वः । रा॒ष्ट्रम् । बृ॒हत् । इ॒न्व॒ति॒ । द्यौः । यौ । से॒तृऽभिः॑ । अ॒र॒ज्जुऽभिः॑ । सि॒नी॒थः । परि॑ । नः॒ । हेळः॑ । वरु॑णस्य । वृ॒ज्याः॒ । उ॒रुम् । नः॒ । इन्द्रः॑ । कृ॒ण॒व॒त् । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवो राष्ट्रं बृहदिन्वति द्यौर्यौ सेतृभिररज्जुभि: सिनीथः । परि नो हेळो वरुणस्य वृज्या उरुं न इन्द्र: कृणवदु लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवः । राष्ट्रम् । बृहत् । इन्वति । द्यौः । यौ । सेतृऽभिः । अरज्जुऽभिः । सिनीथः । परि । नः । हेळः । वरुणस्य । वृज्याः । उरुम् । नः । इन्द्रः । कृणवत् । ऊँ इति । लोकम् ॥ ७.८४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 84; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    सम्प्रति प्रेमरज्जुबद्धस्य राष्ट्रस्य दार्ढ्यं वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (युवोः) हे नृपास्तथा राजपुरुषाः ! युष्माकं (राष्ट्रम्) राज्यं (द्यौः, बृहत्, इन्वति) द्युलोकपर्यन्तं सुविस्तीर्यतां (यौ) युवां द्वावपि (परि) अभितः (सेतृभिः, अरज्जुभिः, सिनीथः) रज्जुरहितरज्जुसदृशप्रेमात्मकबन्धनैर्बद्धौ  (नः) अस्मान् प्राप्नुयातं (ऊ) तथा च (लोकम्) युवयोर्भुवनं (इन्द्रः) विद्युद्विद्यावेत्ता (कृणवत्) रक्षतु (वरुणस्य, हेळः) जलीयविद्याभिज्ञविदुष आक्रमणं (वृज्याः) युष्मदुपरि न भवेत्, युवां प्रार्थयेथाम् (नः) अस्माभिः (उरुम्) विस्तृतलोकाः प्राप्यन्ताम् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रेम रज्जु से बँधे हुए राष्ट्र की दृढ़ता का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (युवोः) हे राजा तथा राजपुरुषो ! तुम्हारा (राष्ट्रं) राज्य (द्यौः, बृहत्, इन्वति) द्युलोकपर्य्यन्त बड़ा विस्तृत हो, (यौ) तुम दोनों (परि) सब ओर से (सेतृभिः, अरज्जुभिः, सिनीथः) प्रेमरूप रज्जुओं में बँधे हुए (नः) हमको प्राप्त हो (उ) और (लोकं) तुम्हारे लोक को (इन्द्रः) विद्युद्विद्यावेत्ता विद्वान् (कृणवत्) रक्षा करे, (वरुणस्य, हेळः) जलविद्यावेत्ता विद्वान् का आक्रमण (वृज्याः) तुम पर न हो और तुम प्रार्थना करो कि (नः) हमको (उरुं) विस्तृत लोकों की प्राप्ति हो ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे राजपुरुषो ! तुम सदैव अपने राष्ट्र की वृद्धि में लगे रहो और उसको प्रेमरूप रज्जु के बन्धन से ऐसा बाँधो, कि वह किसी प्रकार से भी शिथिलता को प्राप्त न हो। अधिक क्या, जिनके राष्ट्र दृढ़ बन्धनों से बँधे हुए हैं, उन पर न कोई जलयानों द्वारा आक्रमण कर सकता और न कोई विद्युत् आदि शक्तियों से उसको हानि पहुँचा सकता है। जो राजा अपने राष्ट्र को दृढ़ बनाने के लिए प्रजा में प्रेम उत्पन्न करता अर्थात् अन्याय और दुराग्रह का त्याग करता हुआ अपने को विश्वासार्ह बनाता है, तब वे दोनों परस्पर उत्पन्न होते और पृथिवी से लेकर द्युलोकपर्य्यन्त सर्वत्र उनका अटल प्रभाव हो जाता है, इसलिए उचित है कि राजा अपने राष्ट्र को दृढ़ बनाने के लिए प्रजा में प्रेम उत्पन्न करे। प्रजा में प्रेम का संचार करनेवाला राजा ही अपने सब कार्यों को विधिवत् करता और वही अन्ततः परमात्मा को प्राप्त होता है ॥२॥

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    विषय

    सम्पन्न राष्ट्र में प्रजा का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    (यौ) जो आप दोनों (अरज्जुभिः) विना रस्सियों के ( सेतृभिः ) बन्धन करने वाले राज नियमों और व्रत बन्धनों से (सिनीथः ) बांध लेते हो ( युवोः ) उन आप दोनों का ( राष्ट्रम्) राष्ट्र ( बृहत् ) बड़ा होकर ( द्यौः ) सूर्य के समान देदीप्यमान होकर ( इन्वति ) सुख समृद्धि से सब को प्रसन्न करता है। ( वरुणस्य हेड: ) श्रेष्ठ जन का हमारे अनादर या क्रोध का भाव ( नः परि वृज्याः ) हम से दूर रहे। ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष राजा वा सेनापति ( नः ) हम प्रजाजन के लिये (उरुं लोकं कृणवत्) रहने के लिये विशाल लोक करे, नाना भूमियों प्रति को बसने योग्य बनावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ॥ इन्द्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः – १, २, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रजाहित के कार्य

    पदार्थ

    पदार्थ- (यौ) = जो आप दोनों (अरज्जुभिः) = बिना रस्सियों के (सेतूभिः) = बन्धन करनेवाले राजनियमों और व्रत - बन्धनों से (सिनीथः) = बाँध लेते हो (युवोः) = उन आप दोनों का (राष्ट्रम्) = राष्ट्र (वृहत्) = बड़ा एवं (द्यौः) = सूर्य तुल्य देदीप्यमान होकर (इन्वति) = सबको प्रसन्न करता है। (वरुणस्य हेडः) = श्रेष्ठ जन का हमारे प्रति क्रोध का भाव (नः परि वृज्या:) = हम से दूर रहे। (इन्द्रः) = ऐश्वर्यवान् राजा वा सेनापति (नः) = हमारे लिये (उरुं लोकं कृणवत्) = निवास हेतु विशाल लोक करे, भूमि को बसने योग्य बनावे ।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा और सेनापति सुदृढ़ राजनियमों का पालन कराके प्रजा को नियम में रखें। उत्तम व्यवहार व जनहितकारी कार्यों से प्रजा को प्रसन्न रखें तथा ऊबड़-खाबड़ भूमि को व्यवस्थित कराके उस पर बस्तियाँ बनाकर प्रजाओं को बसावें ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The mighty heaven of light feeds the vast social order under your rule. You join, you bind, with bonds without snares. May the displeasure of Varuna and consequent suffering be far off from us. May Indra bless us and create a vast expansive world of light for us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे राजपुरुषांनो! तुम्ही सदैव आपल्या राष्ट्राची उन्नती करा व त्याला प्रेमरज्जूनी असे बांधा, की ते कोणत्याही प्रकारे शिथिल होता कामा नये. ज्यांचे राष्ट्र दृढ बंधनानी बांधलेले असते त्याच्यावर जहाजाद्वारे किंवा विद्युत शक्तीद्वारे कोणीही आक्रमण करू शकत नाही अथवा नुकसान करू शकत नाही. जो राजा आपल्या राष्ट्राला दृढ बनविण्यासाठी प्रजेत प्रेम उत्पन्न करतो अर्थात, अन्याय व दुराग्रहाचा त्याग करून आपल्याला विश्वासार्ह बनवितो. तेव्हा ते दोन्ही परस्पर उन्नत होतात. पृथ्वीपासून द्युलोकापर्यंत त्यांचा प्रभाव पडतो. त्यासाठी राजाने आपले राष्ट्र दृढ बनविण्यासाठी प्रजेत प्रेम उत्पन्न करावे. प्रजेत प्रेम उत्पन्न करणारा राजा आपल्या सर्व कार्यांना विधिवत करू शकतो व तोच अनंत परमात्म्याला प्राप्त करू शकतो. ॥२॥

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