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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 87/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒वाच॑ मे॒ वरु॑णो॒ मेधि॑राय॒ त्रिः स॒प्त नामाघ्न्या॑ बिभर्ति । वि॒द्वान्प॒दस्य॒ गुह्या॒ न वो॑चद्यु॒गाय॒ विप्र॒ उप॑राय॒ शिक्ष॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒वाच॑ । मे॒ । वरु॑णः । मेधि॑राय । त्रिः । स॒प्त । नाम॑ । अघ्न्या॑ । बि॒भ॒र्ति॒ । वि॒द्वान् । प॒दस्य॑ । गुह्या॑ । न । वो॒च॒त् । यु॒गाय॑ । विप्रः॑ । उप॑राय । शिक्ष॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उवाच मे वरुणो मेधिराय त्रिः सप्त नामाघ्न्या बिभर्ति । विद्वान्पदस्य गुह्या न वोचद्युगाय विप्र उपराय शिक्षन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उवाच । मे । वरुणः । मेधिराय । त्रिः । सप्त । नाम । अघ्न्या । बिभर्ति । विद्वान् । पदस्य । गुह्या । न । वोचत् । युगाय । विप्रः । उपराय । शिक्षन् ॥ ७.८७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 87; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मना एकविंशतिधा वाक्यं निरूप्यते।

    पदार्थः

    (वरुणः) अखिलविद्याधिष्ठानं परमात्मा (मे) मां (मेधिराय) मेधाविनं शिष्यम् (उवाच) अब्रवीत् (त्रिः, सप्त, नाम) त्रिवारं सप्त एकविंशतिनामेत्यर्थः नामानि, (अघ्न्या, बिभर्ति) वेदवाग्धारयति (न) तथा (विद्वान्) सर्वज्ञः परमात्मा (पदस्य) मुक्तिधाम्नः (गुह्या) गुप्तमार्गानुपदिशन् (वोचत्) उक्तवान् (विप्रः, युगाय) हे मेधाविन् सदाचारवान् ! अहं त्वा (उपराय) स्वसान्निध्याय (शिक्षन्) उपदिशामि ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब परमात्मा की ओर से इक्कीस प्रकार की यज्ञीय वाणी का उपदेश कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (वरुणः) सर्वविद्याभण्डार परमात्मा (मे) मुझे (मेधिराय) मेधावी शिष्य को (उचाव) बोला कि (त्रिः, सप्त, नाम) इक्कीस नामों को (अघ्न्या, बिभर्ति) वेदवाणी ने धारण किया है, (न) और (विद्वान्) सब विद्याओं के वेत्ता परमात्मा ने (पदस्य) मुक्तिधाम के (गुह्या) गुप्त मार्गों का उपदेश करते हुए (वोचत्) कहा कि (विप्रः, युगाय) हे मेधावी योग्य शिष्य ! मैं तुझे (उपराय) अपनी समीपता के लिए   (शिक्षन्) यह उपदेश करता हूँ ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा अपने ज्ञान के पात्र मेधावी भक्तों को अपनी भक्ति का मार्ग बतलाते हुए उपदेश करते हैं कि तुम इक्कीस नामोंवाले यज्ञ, जिनको वेदवाणी ने धारण किया है, उनका अनुष्ठान करो अर्थात् ब्रह्मयज्ञादि पाँच महायज्ञ और उपनयनादि षोडशसंस्काररूप यज्ञ, इन इक्कीस यज्ञों का करनेवाला मुक्तिधाम का अधिकारी होता और वही परमात्मा की समीपता को उपलब्ध करके सुख का अनुभव करता है। वह परमात्मा का उपदेश मनुष्यमात्र के लिए ग्राह्य है कि उक्त इक्कीस यज्ञों का अनुष्ठान करते हुए अपने जीवन को उच्च बनावें ॥४॥

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    विषय

    प्रभु की व्यवस्था में विद्वान् का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( मे मेधिराय ) मुझ बुद्धिमान् पुरुष को ( वरुणः ) सर्व वरणीय श्रेष्ठ प्रभु ( उवाच ) उपदेश करता है कि ( अघ्न्या ) कभी नाश न होने वाली, परमेश्वरी या प्रकृति शक्ति ( त्रिः सप्त नाम ) तीन, सात अर्थात् २१ स्वरूपों को ( बिभर्ति ) धारण करती है । (विप्रः विद्वान् ) विविध विद्याओं से पूर्ण विद्वान् पुरुष ( उपराय ) समीप स्थित ( युगाय ) मनोयोग से विद्या ग्रहण करने वाले शिष्य को ( शिक्षन् ) उपदेश देता हुआ ( पदस्य ) परमप्राप्य ब्रह्म पद के ( गुह्या न ) परम रहस्यों का रहस्य बातों के समान ही ( वोचत् ) उपदेश करे ।

    टिप्पणी

    'त्रिः-सप्त नाम' - ईश्वरीय शक्ति या प्रकृति के २१ स्वरूप 'ये त्रिषप्ताः०' ( अथवं० १ । १ । १ ॥ ) इस मन्त्र के भाष्य में स्पष्ट कहे हैं। पञ्चतन्मात्रा, पञ्च, स्थूलभूत, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय और मन । यद्वा, यहां त्रिः। सप्त। दो पद पृथक् रहें । अतः – इड़े रन्ते हव्ये काम्ये चन्द्रे ज्योतेऽदिते सरस्वति, महि विश्रुति एता ते अघ्न्ये नामानि देवेभ्यो मा सुकृतं ब्रूतात् ॥ यजु० ८ । ४२ ॥ वेद ने ये १० नाम अघ्न्या के कहे हैं । यहां वे ही (त्रिः = ३ + सप्त ७ = १०) नाम अभीष्ट हैं । 'त्रि' इत्यस्य प्रथमैकवचने त्रिः॥ अथवा सुपां सुपो भवन्तीति जसः स्थाने सुः । त्रिः त्रयः, सप्त च मिलि त्वा दश नामानि ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। वरुणो देवता॥ छन्द:– १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ५ आर्षी त्रिष्टुप्। ४, ६, ७ त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    ब्रह्म के रहस्यों का उपदेश

    पदार्थ

    पदार्थ- (मे मेधिराय) = मुझ बुद्धिमान् पुरुष को (वरुणः) = वरणीय प्रभु (उवाच) = उपदेश करता है कि (अघ्न्या) = अविनाशी, परमेश्वरी या प्रकृति शक्ति (त्रिः सप्त नाम) = तीन गुना सात अर्थात् २१ स्वरूपों को (बिभर्त्ति) = धारण करती है। (विप्रः विद्वान्) = विविध विद्याओं से पूर्ण विद्वान् (उपराय) = समीप स्थित (युगाय) = मनोयोग से विद्याग्रहण करनेवाले शिष्य को (शिक्षन्) = उपदेश देता हुआ (पदस्य) = परमप्राप्य ब्रह्म के (गुह्या न) = रहस्यों का (वोचत्) = उपदेश करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- बुद्धिमान् पुरुष इस सृष्टि को देखकर परमेश्वर की रचना सामर्थ्य का दिग्दर्शन था अपने शिष्यों को सृष्टि के रहस्यों को प्रकट करता हुआ ज्ञानोपदेश प्रदान करता करता है है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Varuna, vibrant lord of cosmic intelligence, supreme teacher, spoke to me, dedicated faithful disciple, that divine nature, divine speech, divine earth and sacred cow, each inviolable, bears thrice seven names. Enlightening the scholar approaching the teacher with homage and reverence, the omniscient lord speaks of the supreme state of freedom and bliss as the mystery of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आपल्या ज्ञानास पात्र असलेल्या मेधावी भक्तांना आपल्या भक्तीचा मार्ग दर्शवीत उपदेश करतो, की ज्यांना वेदवाणीने धारण केलेले आहे अशा एकवीस प्रकारच्या यज्ञाचे तुम्ही अनुष्ठान करा. अर्थात, ब्रह्मयज्ञ इत्यादी पाच महायज्ञ व उपनयन इत्यादी सोळा संस्काररूपी यज्ञ या एकवीस यज्ञांना करणारा मुक्तिधामाचा अधिकारी असतो व तोच परमेश्वराशी सम्मीलन करून सुखाचा अनुभव घेतो. हा परमात्म्याचा उपदेश सर्व माणसांसाठी ग्राह्य आहे. वरील एकवीस यज्ञांचे अनुष्ठान करून आपले जीवन उच्च बनवावे. ॥४॥

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