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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 87/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अव॒ सिन्धुं॒ वरु॑णो॒ द्यौरि॑व स्थाद्द्र॒प्सो न श्वे॒तो मृ॒गस्तुवि॑ष्मान् । ग॒म्भी॒रशं॑सो॒ रज॑सो वि॒मान॑: सुपा॒रक्ष॑त्रः स॒तो अ॒स्य राजा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । सिन्धु॑म् । वरु॑णः । द्यौःऽइ॑व । स्था॒त् । द्र॒प्सः । न । श्वे॒तः । मृ॒गः । तुवि॑ष्मान् । ग॒म्भी॒रऽसं॑सः । रज॑सः । वि॒ऽमानः॑ । सु॒पा॒रऽक्ष॑त्रः । स॒तः । अ॒स्य । राजा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव सिन्धुं वरुणो द्यौरिव स्थाद्द्रप्सो न श्वेतो मृगस्तुविष्मान् । गम्भीरशंसो रजसो विमान: सुपारक्षत्रः सतो अस्य राजा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । सिन्धुम् । वरुणः । द्यौःऽइव । स्थात् । द्रप्सः । न । श्वेतः । मृगः । तुविष्मान् । गम्भीरऽसंसः । रजसः । विऽमानः । सुपारऽक्षत्रः । सतः । अस्य । राजा ॥ ७.८७.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 87; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मशक्तिः प्रकारान्तरेण वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (द्यौरिव) सूर्य इव स्वतो भासमानः (वरुणः) परमात्मा (सिन्धुम्) समुद्रं (अवस्थात्) सुस्थिरमकरोत् (न, द्रप्सः) सोऽपि च न सञ्चलति (श्वेतः) शुद्धस्वरूपः सः (तुविष्मान्) दुराचारिषु विषये (मृगः) मृगपतिरिव भवति (गम्भीरशंसः) अकथनीयोऽस्ति (रजसः, विमानः) सूक्ष्मतरानपि जलकणानुत्पादयति, यस्य (सुपारक्षत्रम्) साम्राज्यमपारम्, तथा च यः (सतः, अस्य, राजा) सत्तावतोऽस्य जगतो राजा प्रभुः ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब परमात्मा की शक्ति का प्रकारान्तर से वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (द्यौरिव) सूर्य के समान स्वतःप्रकाश (वरुणः) परमात्मा (सिन्धुं) समुद्र को (अवस्थात्) भले प्रकार मर्यादा में रखता, (न, द्रप्सः) वह चलायमान नहीं होता, वह (श्वेतः) शुद्धस्वरूप (तुविष्मान्) कुटिलगतिवालों के लिए (मृगः) सिंहसमान है, (गम्भीरशंसः) वह अकथनीय है, यह (रजसः, विमानः) सूक्ष्म जलकणों का भी निर्माता है, जिसका (सुपारक्षत्रं) राज्य बल अपार और जो (सतः, अस्य, राजा) इस सत्=विद्यमान जगत् का स्वामी है ॥६॥

    भावार्थ

    वह पूर्ण परमात्मा, जिसने समुद्रादि अगाध जलाशयों की मर्यादा बाँध दी है, वह रेणु आदि सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थों का निर्माता, वह अनन्तशक्तिसम्पन्न और वही इस सद्रूप जगत् का राजा है ॥ स्मरण रहे कि जो लोग इस संसार को मिथ्या मानते हैं, वे “सतो अस्य राजा” इस वाक्य से शिक्षा लें, जिसमें वेद भगवान् ने मिथ्यावादियों के मत का स्पष्ट खण्डन किया है कि यह जगत् सद्रूप है, मिथ्या नहीं ॥६॥

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( द्यौः इव सिन्धु) सूर्य जिस प्रकार अकेला समस्त आकाश में व्यापता है उसी प्रकार वह परमेश्वर भी ( द्यौः ) तेजस्वरूप, ( वरुणः ) सर्वव्यापक होकर (सिन्धुं) अतिवेग से जाने वाले प्रकृति के बने जगत्प्रवाह को ( अव स्थात् ) व्यवस्थित करता है । वह ( द्रप्सः न श्वेतः ) जल विन्दुवत् श्वेत, स्वच्छ एवं रसस्वरूप कान्तिमय है । वह ( मृगः ) सिंहवत् बलवान् वा, (मृगः) ज्ञानी जनों द्वारा खोजने योग्य और ( मृगः ) अति शुद्ध, पावन स्वरूप, ( तुविष्मान् ) अति बलशाली, सर्व शक्तिमान् है । वह ( गंम्भीर-शंसः ) गंभीर समुद्र के समान अगाध और प्रशंसा करने योग्य, वेदमय गम्भीर ज्ञान का उपदेष्टा, ( रजसः विमानः ) इस समस्त लोक समूह का विशेष निर्माता और ज्ञाता है, वह ( सुपार-क्षत्रः) सुख से सर्वपालक बलैश्वर्यवान्, ( अस्य सतः राजाः) इस सत्, व्यक्त संसार का राजावत् शासक है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। वरुणो देवता॥ छन्द:– १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ५ आर्षी त्रिष्टुप्। ४, ६, ७ त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    सृष्टि का पालक व्यापक परमात्मा

    पदार्थ

    पदार्थ (द्यौः इव सिन्धुं) = सूर्य जैसे अकेला समस्त आकाश में व्यापता है वैसे ही परमेश्वर (द्यौः) = तेजस्वरूप, (वरुणः) = सर्वव्यापक होकर (सिन्धुं) = वेगवाले प्रकृति के बने जगत्-प्रवाह को (अव स्थात्) = व्यवस्थित करता है। वह (द्रप्सः न श्वेतः) = जलविन्दुवत् रसस्वरूप व कान्तिमय है। वह (मृगः) = सिंहवत् बलवान् वा (मृगः) = ज्ञानी जनों द्वारा खोजने योग्य और (मृगः) = पावन स्वरूप, (तुविष्मान्) = सर्व शक्तिमान् है। वह (गम्भीर-शंसः) = गम्भीर समुद्र तुल्य अगाध और प्रशंसा-योग्य, (रजसः विमानः) = इस समस्त लोक-समूह का विशेष निर्माता है, वह (सुपार क्षत्रः) = सुख से सर्वपालक, बलैश्वर्यवान्, (अस्य सतः राजा) = इस व्यक्त संसार का राजावत् शासक है।

    भावार्थ

    भावार्थ- परमेश्वर सृष्टि में व्यापक है। ज्ञानी जन उसी की खोज करते हैं क्योंकि वह सबका पालक तथा शासक है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vanina places the sea below as the heaven above, the lord immaculate who, as a drop of crystal, is mighty powerful as the lion, supreme adorable, creator of space and stars, sovereign of the mighty universal order, sole ruler and law giver of this world of reality.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्याने समुद्र इत्यादी अगाध जलाशयांची मर्यादा बंधित केलेली आहे. तो पूर्ण परमात्मा रेणू इत्यादी सूक्ष्माहून सूक्ष्म पदार्थांचा निर्माता, अनंतशक्तिसंपन्न व सत्रूपी जगाचा राजा आहे.

    टिप्पणी

    हे स्मरण ठेवले पाहिजे, की जे लोक या जगाला मिथ्या मानतात त्यांनी ‘सतो अस्य राजा’ या वाक्याने धडा घ्यावा ज्यात वेद भगवानाने मिथ्यावादींच्या मताचे खंडन केलेले आहे, की हे जग सद्रुप आहे मिथ्या नव्हे. ॥६॥

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