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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 87/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो मृ॒ळया॑ति च॒क्रुषे॑ चि॒दागो॑ व॒यं स्या॑म॒ वरु॑णे॒ अना॑गाः । अनु॑ व्र॒तान्यदि॑तेॠ॒धन्तो॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । मृ॒ळया॑ति । च॒कुषे॑ । चि॒त् । आगः॑ । व॒यम् । स्या॒म॒ । वरु॑णे । अना॑गाः । अनु॑ । व्र॒तानि॑ । अदि॑तेः । ऋ॒धन्तः॑ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो मृळयाति चक्रुषे चिदागो वयं स्याम वरुणे अनागाः । अनु व्रतान्यदितेॠधन्तो यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । मृळयाति । चकुषे । चित् । आगः । वयम् । स्याम । वरुणे । अनागाः । अनु । व्रतानि । अदितेः । ऋधन्तः । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.८७.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 87; मन्त्र » 7
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 7
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    सम्प्रति परमात्मा पापनिवर्तनप्रकारमुपदिशति।

    पदार्थः

    (यः) यो हीश्वरः (आगः, चक्रुषे) अपराधं कुर्वन्तम् (चित्) अपि (मृळयाति) पापान्निवर्त्य सुखयति, तस्य (वरुणे) परमात्मनः समक्षं (वयम्) वयं (अनागाः) निरपराधाः (स्याम) भवाम (अदितेः) तस्य विभोः (व्रतानि) नियमान् (अनु, ऋधन्तः) शश्वत्पालयन्तः प्रार्थयेमहि, यत् हे परमात्मन् ! (यूयम्) भवान् (स्वस्तिभिः) मङ्गलवाग्भिः (सदा) शश्वत् (नः) अस्मान् (पात) रक्षत ॥७॥ इति सप्ताशीतितमं सूक्तं नवमो वर्गश्च समाप्तः ॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    अब परमात्मा निष्पाप होने का प्रकार कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (यः) जो परमात्मा (आगः, चक्रुषे) अपराध करते हुए को (चित्) भी (मृळयाति) अपनी दया से क्षमा कर देता है, उस (वरुणे) वरुणरूप परमात्मा के समक्ष (वयं) हम (अनागाः) निरपराध (स्याम) हों, (अदितेः) उस अखण्डनीय परमात्मा के (व्रतानि) नियमों को (अनु, ऋधन्तः) निरन्तर पालन करते हुए प्रार्थना करें कि हे परमात्मन् ! (यूयं) आप (स्वस्तिभिः) मङ्गलवाणियों से (सदा) सदैव (नः) हमारी (पात) रक्षा करें ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में जो यह वर्णन किया है कि वह अपराध करते हुए को अपनी दया से क्षमा कर देता है, इसका आशय यह है कि वह अपने सम्बन्ध में हुए पापों को क्षमा कर देता है, परन्तु जिन पापों का प्रभाव दूसरों पर पड़ता है, उनको कदापि क्षमा नहीं करता। जैसे कोई प्रमादवश किसी दिन सन्ध्या न करे, तो प्रार्थना करने पर उस पाप को क्षमा कर सकता है, परन्तु चोरी अथवा असत्य भाषणादि पापों को वह कदापि क्षमा नहीं करता, उनका दण्ड अवश्य देता है। यद्यपि परमात्मा में इतनी उदारता है कि वह अपराधों को क्षमा भी कर सकता है, परन्तु हमको उसके समक्ष सदैव निरपराध होकर जाना चाहिये। जब हम उस परमात्मा के नियमों का पालन करते हुए उससे क्षमा की प्रार्थना करते हैं, तभी वह हमारे ऊपर दया कर सकता है, अन्यथा नहीं ॥ इस मन्त्र में परमात्मा की आज्ञारूप व्रतों के पालन करने का सर्वोपरि उपदेश पाया जाता है, जैसा कि “अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि०॥” यजु० १।५॥ इत्यादि मन्त्रों में व्रतपालन की प्रार्थना की गई है। जो पुरुष व्रतपालन नहीं कर सकता, उससे संसार में कुछ भी नहीं होता, उसका जीवन निष्फल जाता है, इसलिये ईश्वरीय नियमों का पालन करना प्रत्येक मनुष्य के लिये अवश्य कर्त्तव्य है ॥७॥ यह ८७वाँ सूक्त और नवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Varuna, lord who save even the sinner, bless us that we may be sinless, observing the laws of mother Infinity’s discipline. O lord, O saints and sages, teachers and rulers, protect and promote us with peace, progress and all round well being all ways all time.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात अपराध करणाऱ्यांवर जो दया करतो त्याचे वर्णन आहे. याचा आशय असा, की परमात्मा त्याच्यासंबंधी झालेल्या पापांना क्षमा करतो; परंतु ज्या पापाचा दुसऱ्यावर प्रभाव पडतो त्यांना क्षमा करीत नाही. जसे प्रमादाने कोणी कधी संध्या केली नाही, तर प्रार्थना केल्यावर त्या पापाची क्षमा करू शकतो; परंतु चोरी किंवा असत्य भाषण इत्यादी पापांना तो कधीही क्षमा करणार नाही. त्याचा दंड अवश्य देतो. जरी परमात्मा उदार आहे, तो अपराधाची क्षमाही करतो; परंतु आपण त्याच्यासमोर सदैव निरपराधी होऊनच गेले पाहिजे. जेव्हा आपण त्या परमात्म्याच्या नियमांचे पालन करीत त्याला क्षमेची प्रार्थना करतो तेव्हा तो आमच्यावर दया करू शकतो. अन्यथा नाही.

    टिप्पणी

    या मंत्रात परमात्म्याच्या आज्ञारूपी व्रतांचे पालन करण्याचा श्रेष्ठ उपदेश आढळून येतो. जसे ‘अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि’ ॥यजु. १।५॥ $ या मंत्रात व्रतपालनाची प्रार्थना केलेली आहे. जो पुरुष व्रत पालन करू शकत नाही. त्याच्याकडून जगात काहीही होऊ शकत नाही. त्याचे जीवन निष्फल होते. त्यासाठी ईश्वरीय नियमांचे पालन करणे प्रत्येक माणसाचे कर्तव्य आहे. ॥७॥

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