ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 88/ मन्त्र 3
आ यद्रु॒हाव॒ वरु॑णश्च॒ नावं॒ प्र यत्स॑मु॒द्रमी॒रया॑व॒ मध्य॑म् । अधि॒ यद॒पां स्नुभि॒श्चरा॑व॒ प्र प्रे॒ङ्ख ई॑ङ्खयावहै शु॒भे कम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । यत् । रु॒हाव॑ । वरु॑णः । च॒ । नाव॑म् । प्र । यत् । स॒मु॒द्रम् । ई॒रया॑व । मध्य॑म् । अधि॑ । यत् । अ॒पाम् । स्नुऽभिः॑ । चरा॑व । प्र । प्र॒ऽई॒ङ्खे । ई॒ङ्ख॒या॒व॒है॒ । शु॒भे । कम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यद्रुहाव वरुणश्च नावं प्र यत्समुद्रमीरयाव मध्यम् । अधि यदपां स्नुभिश्चराव प्र प्रेङ्ख ईङ्खयावहै शुभे कम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । यत् । रुहाव । वरुणः । च । नावम् । प्र । यत् । समुद्रम् । ईरयाव । मध्यम् । अधि । यत् । अपाम् । स्नुऽभिः । चराव । प्र । प्रऽईङ्खे । ईङ्खयावहै । शुभे । कम् ॥ ७.८८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 88; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्) यदा वयं (वरुणः) परमात्मनः (नावम्) इच्छाम् (आ, रुहाव) आरोहामः, (यत्) यदा (समुद्रम्) कर्मणामधिष्ठातुः परमात्मनः (मध्यम्) रूपं (ईरयाव) अवगच्छामः (यत्) यदा च (अपाम्) कर्मणां (स्नुभिः) प्रेरयितुः ईश्वरस्य (प्रेङ्खे) इच्छायां (चराव) विचरामः तदा (प्र) प्रकर्षेण (शुभे) माङ्गलिकवासनासु (कम्) ब्रह्मानन्दम् (ईङ्खयावहै) अनुभवामः ॥३॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यत्) जब हम (वरुणः, च) परमात्मा की (नावं) इच्छा पर (आ, रुहाव) आरूढ़ होते हैं और (यत्) जब (समुद्रं) कर्मों के अधिष्ठाता परमात्मा के (मध्यं) स्वरूप का (ईरयाव) अवगाहन करते हैं और (यत्) जब (अपां) कर्मों के (स्नुभिः) प्रेरक परमात्मा की (प्रेङ्खे) इच्छा में (चराव) विचरते हैं, तब (प्र) प्रकर्षता से (शुभे) उस मङ्गल वासना में (कं) ब्रह्मानन्द को (ईङ्खयावहै) अनुभव करते हैं ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में कर्मयोग का वर्णन किया है कि जब पुरुष अपनी इच्छाओं को ईश्वराधीन कर देता है, वा यों कहो कि निष्काम कर्मों को करता हुआ उनके फल की इच्छा नहीं करता, तब परमात्मा के भावों में विचरता हुआ पुरुष एक प्रकार के अपूर्व आनन्द को अनुभव करता है ॥३॥
विषय
शिष्य-गुरु, भक्त-उपास्य के स्नेह की पति-पत्नी के स्नेह से समता ।
भावार्थ
( अहं ) मैं और ( वरुणः च ) सर्वश्रेष्ठ वरण करने योग्य स्वामी, दोनों दो मित्रों के समान वा पति-पत्नीवत् ( यत् नावम् आ रुहाव ) जब नाव पर चढ़ें ( यत् समुद्रम् मध्यम् ईरयाव ) और जब समुद्र के बीच उसको चलावें ( यत् अधि अपां ) जब जलों के ऊपर (स्नुभिः चराव ) गमनशील यानों से विचरें तो ( शुभे) अपनी शोभा और ( कम् ) सुख प्राप्त करने के लिये ( प्रेङ्खे ) झूले पर ( प्रेङ्खयावहे ) हम दोनों झूलें । शिष्य और गुरुभक्त और उपास्य दोनों वाणी या स्तुति रूप नौका पर चढ़ते हैं, आनन्द सागर की ओर बढ़ते हैं । ( स्नुभिः ) नाना साधनों से (अपां अधि) प्राणों के ऊपर वश करते हैं ( प्रेङ्खे ) परम उत्तम गन्तव्य पद पर शोभा व कल्याण के निमित्त उत्कृष्ट गति को प्राप्त करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
जल गमन काल में भी ईश चिन्तन
पदार्थ
पदार्थ- (अहं) = मैं और (वरुणः च) = वरणीय स्वामी, दोनों दो मित्रों के समान वा पतिपत्नीवत् (यत् नावम् आ रुहाव) = जब नाव पर चढ़ें (यत् समुद्रम् मध्यम् ईरयाव) = और जब समुद्र के बीच उसको चरावें (यत् अधि अपां) = जब जलों के ऊपर (स्नुभिः चराव) = गमनशील यानों से विचरें तो (शुभे) = शोभा और (कम्) = सुख पाने के लिये (प्रेङ्खे) = झूले पर (प्रेङ्खयावहे) = हम दोनों झूलें ।
भावार्थ
भावार्थ- यात्रा काल में भी जब मनुष्य नाव आदि के द्वारा जलों में विचरण करता है। तब भी उस परम मित्र परमेश्वर को अपने साथ अनुभव करता हुआ उसी का मनन करे।
मन्त्रार्थ
(यत्) यदा-जब (वरुणः-च) मैं और वरुण परमात्मा (नावम् आरुहाव) हम दोनों नौका पर चढे (यत् समुद्र मध्यं प्रेरयाव) जब कि समुद्र के अन्दर उसे चलाते हैं (यत्) और जब (अपां स्नुभिः-अधिचराव) जलों के प्रस्रवणों-तरङ्गों के साथ अधिकारपूर्वक विचरण करते हैं तो ऐसा लग रहा है जैसे (शुभे कं प्रेङ्खेयावहै) शुभ झूले में सुख का भूलना भूलते हैं ॥३॥
विशेष
ऋषिः—वसिष्ठः (उपासक पूर्ववत्) देवता-वरुणः (परमात्मा पूर्ववत्)
इंग्लिश (1)
Meaning
And when I ride on the wings of Ananda samadhi with the presence of divine Varuna, I float through the boundless ocean of his infinite omnipresence, and when I fly over the world of karmic existence and all that goes with it, I transcend it with the divine presence and roll in the infinite ecstasy of pure bliss above the world of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात कर्मयोगाचे वर्णन आहे. जेव्हा पुरुष आपल्या इच्छा ईश्वराधीन करतो किंवा जेव्हा निष्काम कर्म करतो व त्याच्या फळाची आशा धरत नाही तेव्हा परमात्म्याच्या भक्तीत रमलेला पुरुष एक प्रकारच्या अपूर्व आनंदाचा अनुभव घेतो. ॥३॥
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