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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    स सु॒क्रतु॒र्यो वि दुरः॑ पणी॒नां पु॑ना॒नो अ॒र्कं पु॑रु॒भोज॑सं नः। होता॑ म॒न्द्रो वि॒शां दमू॑नास्ति॒रस्तमो॑ ददृशे रा॒म्याणा॑म् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । सु॒ऽक्रतुः॑ । यः । वि । दुरः॑ । प॒णी॒नाम् । पु॒ना॒नः । अ॒र्कम् । पु॒रु॒ऽभोज॑सम् । नः॒ । होता॑ । म॒न्द्रः । वि॒शाम् । दमू॑नाः । ति॒रः । तमः॑ । द॒दृ॒शे॒ । रा॒म्याणा॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स सुक्रतुर्यो वि दुरः पणीनां पुनानो अर्कं पुरुभोजसं नः। होता मन्द्रो विशां दमूनास्तिरस्तमो ददृशे राम्याणाम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। सुऽक्रतुः। यः। वि। दुरः। पणीनाम्। पुनानः। अर्कम्। पुरुऽभोजसम्। नः। होता। मन्द्रः। विशाम्। दमूनाः। तिरः। तमः। ददृशे। राम्याणाम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः क राजकर्मसु वरा भवन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यः पणीनां दुरः पुनानो राम्याणां तमस्तिरस्कृत्य सूर्यो ददृशे तथा सुक्रतुरर्कं पुरुभोजसं वि पुनानो नो विशां मन्द्रो होता दमूना अविद्यां तिरस्करोति सोऽस्माकं राजा भवतु ॥२॥

    पदार्थः

    (सः) (सुक्रतुः) सुष्ठुप्रज्ञः (यः) (वि) (दुरः) द्वाराणि (पणीनाम्) स्तुत्यव्यवहारकर्तॄणाम् (पुनानः) पवित्रयन् (अर्कम्) अन्नं सत्कर्तव्यं जनं वा (पुरुभोजसम्) बहूनां रक्षितारम् (नः) अस्माकम् (होता) दाता (मन्द्रः) आनन्दयिता (विशाम्) प्रजानां मध्ये (दमूनाः) दमनशीलः (तिरः) तिरस्करणे (तमः) अन्धकारम् (ददृशे) दृश्यते (राम्याणाम्) रात्रीणाम्। राम्येति रात्रिनाम। (निघं०१.७.२) ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सभ्या राजानः सूर्यवन्न्यायप्रकाशका अविद्यान्धकारनिवारका दुष्टानां दमनशीला धार्मिकाणां सत्कर्त्तारः सन्तो धर्ममार्गं पुनन्ति त एव सर्वैस्सत्कर्त्तव्या भवन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राज कार्य्यों में कौन लोग श्रेष्ठ होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (पणीनाम्) प्रशस्त व्यवहार करनेहारों के (दुरः) द्वारों को (पुनानः) पवित्र करता हुआ (राम्याणाम्) रात्रियों के (तमः) अन्धकार का (तिरः) तिरस्कार करके सूर्य (ददृशे) दीखता है तथा (सुक्रतुः) सुन्दर बुद्धिवाला (अर्कम्) अन्न वा सत्कार योग्य (पुरुभोजसम्) बहुतों के रक्षक मनुष्य को (वि) विशेष कर पवित्रकर्ता (नः) हमारी (विशाम्) प्रजाओं में (मन्द्रः) आनन्ददाता (होता) दानशील (दमूनाः) दमनशील अविद्या का तिरस्कार करता है (सः) वह हमारा राजा हो ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोमालङ्कार है। जो सभ्य राजा लोग सूर्य के तुल्य न्याय के प्रकाशक, अविद्यारूप अन्धकार के निवारक, दुष्टों का दमन और श्रेष्ठ धार्मिकों का सत्कार करनेवाले होते हुए धर्मसम्बन्धी मार्ग को पवित्र करते हैं, वे ही सब को सत्कार करने योग्य होते हैं ॥२॥

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    विषय

    उसका पवित्र करने का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( राम्याणां तमः दमूनाः तिरः ददृशे ) रात्रियों के अन्धकार को दूर करके अग्नि वा सूर्य दिखाई देता है उसी प्रकार ( यः ) जो ( दमूनाः ) दान में अपना चित्त देने वाला, जितेन्द्रिय, मन को जीतने वाला, ( होता ) दाता, ( मन्द्रः ) सब को प्रसन्न करने वाला पुरुष ( नः ) हमारे ( पुरु-भोजसं ) बहुतों को पालने वाले, और बहुत से ऐश्वर्यो को भोगने वाले ( अर्कं ) पूज्य पुरुष को ( वि पुनानः ) विशेष रूप से पवित्र रूप से अभिषिक्त वा स्थापित करता हुआ ( पणीनां ) व्यवहार करने वाले प्रजागणों के ( पुरः ) नाना द्वारों या व्यवहार के मार्गों को ( वि पुनानः ) न्यायमर्यादा से स्वच्छ, निष्कण्टक करता हुआ ( राम्याणाम् ) रमण करने योग्य ( विशां तमः तिरः ददृशे ) प्रजाओं के अज्ञान, अधर्म वा पाप को दूर करके स्वयं अग्नि या सूर्यवत् तेजस्वी रूप से दीखता है (सः सुक्रतुः ) वही पुरुष शुभ कर्म और उत्तम बुद्धिवाला है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः - १ त्रिष्टुप् । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ३ भुरिक् पंक्ति: । ६ स्वराट् पंक्तिः ॥ षड़ृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ज्ञान का प्रकाश

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे प्रभु (सुक्रतुः) = शोभनकर्मा व शोभनप्रज्ञ हैं, (यः) = जो (पणीनाम्) = [पण व्यवहारे स्तुतौ च] प्रभु-स्मरणपूर्वक व्यवहार करनेवालों के (दूरः) = इन्द्रिय द्वारों को (वि) = खोल देते हैं, विषयवासनाओं से मुक्त करके इन्हें स्वकर्तव्य में प्रेरित करते हैं। ये प्रभु (नः) = हमारे (पुरुभोजसम्) = खूब ही पालन करनेवाले (अर्कम्) = ज्ञानसूर्य को (पुनान:) = पवित्र करते हैं, वासनारूप बादलों के आवरण से इसे रहित करते हैं। वासनामेघ के विलीन होने से ज्ञानसूर्य दीप्त हो उठता है। [२] (होता) = वे प्रभु सब कुछ देनेवाले हैं। (मन्द्रः) = आनन्दमय हैं। (दमूना:) = दान के मनवाले हैं। (राम्याणां विशाम्) = रात्रि के अन्धकार में फँसी अथवा रमण प्रवृत प्रजाओं के (तमः) = अन्धकार को (तिरः ददृशे) = तिरोहित कर देते हैं, नष्ट कर देते हैं। प्रभु की उपासना के होने स अज्ञानान्धकार नष्ट हो हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रभु उपासकों के इन्द्रिय द्वारों को विजयवज्र से मुक्त कर देते हैं और इनके ज्ञान को वे दीप्त करते हैं। उपासना से विषयों में रमण करनेवाली प्रजाओं का भी अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सभ्य राजे लोक सूर्याप्रमाणे न्यायप्रकाशक, अविद्यारूपी अंधकाराचे निवारक, दुष्टांचे दमन व श्रेष्ठ धार्मिकांचा सत्कार करतात व धर्मासंबंधीचा मार्ग प्रशस्त करतात तेच सर्वांकडून सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He is the noble performer of action who opens the doors of divinity for the celebrants, blesses and sanctifies light and food, giving protection and nourishment for all, performs yajna, gives delight, controls and ogranises people with discipline, removes darkness of the nights and appears blissful.

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