ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 91/ मन्त्र 7
अर्व॑न्तो॒ न श्रव॑सो॒ भिक्ष॑माणा इन्द्रवा॒यू सु॑ष्टु॒तिभि॒र्वसि॑ष्ठाः । वा॒ज॒यन्त॒: स्वव॑से हुवेम यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठअर्व॑न्तः । न । श्रव॑सः । भिक्ष॑माणाः । इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑ । सु॒स्तु॒तिऽभिः॑ । वसि॑ष्ठाः । वा॒ज॒ऽयन्तः॑ । सु । अव॑से । हु॒वे॒म॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वन्तो न श्रवसो भिक्षमाणा इन्द्रवायू सुष्टुतिभिर्वसिष्ठाः । वाजयन्त: स्ववसे हुवेम यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वन्तः । न । श्रवसः । भिक्षमाणाः । इन्द्रवायू इति । सुस्तुतिऽभिः । वसिष्ठाः । वाजऽयन्तः । सु । अवसे । हुवेम । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.९१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 91; मन्त्र » 7
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 7
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रवायू) हे पूर्वोक्तयोगद्वयविशिष्टाः ! वयं (अर्वन्तः) जिज्ञासवः (न) इव (श्रवसः) ज्ञानं (भिक्षमाणाः) याचमानाः (सुस्तुतिभिः, वसिष्ठाः) युष्मत्स्तुतितत्पराः (स्ववसे) स्वरक्षणाय (वाजयन्तः) बलं कामयमानाः (हुवेम) शब्दयामहे याचामहे (यूयम्) यूयं सर्वे (स्वस्तिभिः) स्वस्तिवाग्भिः (सदा) शश्वत् (नः) अस्मान् (पात) रक्षत ॥७॥ एकनवतितमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रवायू) हे ज्ञानयोगी और कर्मयोगी पुरुषो ! हम (अर्वन्तः) जिज्ञासुओं के (न) समान (श्रवसः) ज्ञान की (भिक्षमाणाः) भिक्षा माँगते हुए (सुस्तुतिभिः, वसिष्ठाः) आपकी स्तुतिपरायण हुए अपनी रक्षा के लिये (वाजयन्तः) आपसे बल की याचना करते हैं और (हुवेम) ह्वेञ् शब्दार्थक धातु होने से यहाँ याच्ञाविषयक शब्दार्थ है। हम यह दान माँगते हैं कि (यूयं) आप (स्वस्तिभिः) स्वस्तिवाचनों से (नः) हमारी (सदा) सदैव (पात) रक्षा करें ॥७॥
भावार्थ
जो लोग ज्ञान और विज्ञान के भिक्षु बन कर ज्ञानी और विज्ञानी लोगों से सदैव ज्ञानयोग और कर्मयोग की भिक्षा माँगते हैं, परमात्मा उनको अभ्युदय और निःश्रेयस इन दोनों ऐश्वर्यों से परिपूर्ण करता है ॥७॥ यह ९१वाँ सूक्त और १३वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
विद्युत्-वायुवत् दो नायकों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
व्याख्या देखो सू० ९० । ७ ॥ इति त्रयोदशो वर्गः ॥ 7
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १, ३ वायुः । २, ४–७ इन्द्रवायू देवते। छन्दः—१, ४,७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ५, ६ आर्षी त्रिष्टुप् ॥ ३ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
ब्रह्मचारी सैनिक -
पदार्थ
पदार्थ - हम लोग (अर्वन्तः) = शत्रुनाशक वीर पुरुषों और अश्वों के समान बलवान्, (श्रवसः भिक्षमाणाः) = श्रवण योग्य ज्ञान की योग्य गुरुओं और अन्न की गृहस्थों से याचना करते हुए, (वसिष्ठाः) = उत्तम ब्रह्मचारी होकर (सु-अवसे) = उत्तम ज्ञान और रक्षा के लिये स्वयं (वाजयन्तः) = ज्ञान, बल, धनादि को चाहते और प्राप्त करते हुए (इन्द्रवायू हुवेम) = ऐश्वर्यवान् और बलवान् जनों को प्राप्त करें। (यूयं) = आप लोग (नः सदा स्वस्तिभिः पात) = सदा हमारी उत्तम साधनों से रक्षा करें।
भावार्थ
भावार्थ- वीर सैनिक ब्रह्मचारी होकर पूर्ण मनोयोग से उत्तम प्रशिक्षक गुरुओं से युद्ध विद्या के समस्त रहस्यों को जानें और युद्धाभ्यास किया करें । अगले सूक्त के ऋषि देवता वसिष्ठ वायु हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Flying on the wings of vision and imagination like riders of the skies, motivated and ambitious for honour and fame, aspiring for power and victory, brilliant sages and scholars and all of us invoke and invite you, Indra and Vayu, lords of knowledge and power, inspiration and motivation, with songs of admiration for the sake of protection and progress. O saints and sages, Indra and Vayu, pray bless us and advance us with all means and modes of peace, prosperity and all round well being all ways all time.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक ज्ञान विज्ञानाचे भिक्षू बनून ज्ञानी व विज्ञानी लोकांकडून सदैव ज्ञानयोग व कर्मयोगाची भिक्षा (याचना) मागतात, परमात्मा त्यांना अभ्युदय व नि:श्रेयस या दोन्ही ऐश्वर्यांनी परिपूर्ण करतो. ॥७॥
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