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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 98/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रेन्द्र॑स्य वोचं प्रथ॒मा कृ॒तानि॒ प्र नूत॑ना म॒घवा॒ या च॒कार॑ । य॒देददे॑वी॒रस॑हिष्ट मा॒या अथा॑भव॒त्केव॑ल॒: सोमो॑ अस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । इन्द्र॑स्य । वो॒च॒म् । प्र॒थ॒मा । कृ॒तानि॑ । प्र । नूत॑ना । म॒घऽवा॑ । या । च॒कार॑ । य॒दा । इत् । अदे॑वीः । अस॑हिष्ट । मा॒याः । अथ॑ । अ॒भ॒व॒त् । केव॑लः । सोमः॑ । अ॒स्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेन्द्रस्य वोचं प्रथमा कृतानि प्र नूतना मघवा या चकार । यदेददेवीरसहिष्ट माया अथाभवत्केवल: सोमो अस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । इन्द्रस्य । वोचम् । प्रथमा । कृतानि । प्र । नूतना । मघऽवा । या । चकार । यदा । इत् । अदेवीः । असहिष्ट । मायाः । अथ । अभवत् । केवलः । सोमः । अस्य ॥ ७.९८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 98; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रस्य) विदुषः (प्रथमा, कृतानि) पूर्वं सम्पादितानि (या) यानि च (नूतना) नूतनानि कर्माणि (मघवा) ऐश्वर्यशाली विद्वान् (प्र, चकार) अकरोत् तानि (प्रवोचम्) वर्णयामि (यदा) यत्रकाले (अदेवीः, मायाः) आसुरीं प्रकृतिं (असहिष्ट, इत्) सोढवानयं तदा (केवलः, सोमः) एक एव सौम्यस्वभावः (अस्य, अभवत्) अस्य विदुषोभूत् सहायः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रस्य) विद्वान् के (प्रथमा, कृतानि) पहले किये हुए वीर्यकर्मों को तथा (या) जिन (नूतना) नवीन कर्मों को (मघवा) ऐश्वर्यसम्पन्न विद्वान् ने (प्र, चकार) किया, उनको (प्र, वोचम्) वर्णन करते हैं, (यदा) जब इसने (अदेवीः, मायाः) आसुरी प्रकृति को (असहिष्ट, इत्) दृढ़रूप से सह लिया अर्थात् उसके वशीभूत न हुआ, तब (केवलः, सोमः) केवल सोम अर्थात् शील (अस्य, अभवत्) इसका सहायक हुआ ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे विद्वानों ! जो पुरुष आसुरी माया के बन्धन ने नहीं आता, उसके बल और यश को सम्पूर्ण संसार वर्णन करता है और उसकी दृढ़ता और परमात्मपरायणता उसको आपत् समय में भी सहायता देती है, इसलिये तुम ऐसा व्रत धारण करो कि छल, कपट, दम्भ के कदापि वशीभूत न होओ। इस दृढ़ता के लिये मैं तुम्हारा सहायक होऊँगा ॥५॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य। पक्षान्तर में प्रभु की उपासना।

    भावार्थ

    ( इन्द्रस्य ) इन्द्र, शत्रुहन्ता सेनापति के (प्रथमा) प्रथम, मुख्य ( कृतानि ) कर्त्तव्यों को मैं ( प्र-वोचम् ) उपदेश करता हूं ( मघवा ) ऐश्वर्यवान् धनवान् ( या ) जिन २ ( नूतना ) अति प्रशस्त, नये २ कार्यों को भी ( चकार ) करे, उनका भी ( प्र वोचं ) अच्छी प्रकार वर्णन करूं । ( यत् ) जब वह ( अदेवी: मायाः ) अमानुषी, दुष्ट पुरुषों के विचित्र २ कपट-कृत्यों को भी पराजित करे ( अथ ) अनन्तर ( सोमः ) यह ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र ( केवलः ) केवल ( अस्य अभवत् ) उसी के ही अधीन हो जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ १–६ इन्द्रः। ७ इन्द्राबृहस्पती देवते। छन्द:— १, २, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्॥ षड्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सेनापति के मुख्य कर्त्तव्य

    पदार्थ

    पदार्थ - (इन्द्रस्य) = शत्रुहन्ता सेनापति के (प्रथमा) = मुख्य (कृतानि) = कर्त्तव्यों को मैं (प्र वोचम्) = कहता हूँ | (मघवा) = ऐश्वर्यवान् या जिन (नूतना) = नये-नये कार्यों को (चकार) = करे, उनको (प्र वोचं) = अच्छी प्रकार कहूँ। (यत्) = जब वह (अदेवीः मात्रा:) = दुष्ट पुरुषों के कपट कृत्यों को भी (असहिष्ट) = पराजित करे (अथ) = अनन्तर (सोम:) = यह ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र (केवल:) = केवल (अस्य अभवत्) = उसी अधीन हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सेनापति राष्ट्र को ऐश्वर्यशाली बनाने के लिए राष्ट्र रक्षा की नयी-नयी योजनाएँ बनावे। सेना को सदृढ़ बनाने तथा युद्ध-साधनों को तैयार एवं सुसज्जित करने के कार्य करे। राष्ट्र के अन्दर भी जो दुष्ट लोग राष्ट्र को दुर्बल करने के कपटपूर्ण कार्य करे या शत्रु राष्ट्र के गुप्तचर कोई छल करें तो उनको भी शक्ति के साथ विफल करे। इन सब कार्यों का वह स्वयं नियन्त्रण करे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let me thus proclaim and celebrate the exploits of Indra, those accomplished earlier and the latest which the illustrious hero has achieved when he challenged and frustrated the evil designs of the crafty enemies and became the sole winner of the soma of honour and fame.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे विद्वानांनो! जो पुरुष आसुरी मायेच्या बंधनात अडकत नाही त्याचे यश व बल संपूर्ण जग गाते. त्याची दृढता व परमात्मपरायणता त्याच्या संकटकाळीही सहायता करते. त्यासाठी तुम्ही असे व्रत धारण करा की छळ, कपट, दंभ यांच्या वशीभूत होऊ नका. या दृढतेसाठी मी तुमचा सहायक बनेन ॥५॥

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