ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्षीबृहती
स्वरः - मध्यमः
आ त्वा॑ स॒हस्र॒मा श॒तं यु॒क्ता रथे॑ हिर॒ण्यये॑ । ब्र॒ह्म॒युजो॒ हर॑य इन्द्र के॒शिनो॒ वह॑न्तु॒ सोम॑पीतये ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । स॒हस्र॑म् । आ । श॒तम् । यु॒क्ताः । रथे॑ । हि॒र॒ण्यये॑ । ब्र॒ह्म॒ऽयुजः॑ । हर॑यः । इ॒न्द्र॒ । के॒शिनः॑ । वह॑न्तु । सोम॑ऽपीतये ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा सहस्रमा शतं युक्ता रथे हिरण्यये । ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । सहस्रम् । आ । शतम् । युक्ताः । रथे । हिरण्यये । ब्रह्मऽयुजः । हरयः । इन्द्र । केशिनः । वहन्तु । सोमऽपीतये ॥ ८.१.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 24
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ समष्टिरूपेण प्रार्थना विधीयते।
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (हिरण्यये) ज्योतिःस्वरूपे (रथे) रमणीये ब्रह्माण्डे (ब्रह्मयुजः) स्तोत्रयुक्ताः (केशिनः) काशमानाः (हरयः) मनुष्याः (सहस्रं, शतं) सहस्रसंख्याकाः शतसंख्याकाश्च (आयुक्ताः) संगताः सन्तः (सोमपीतये) ब्रह्मानन्दाय (त्वा) त्वां (आवहन्तु) आवाहयन्तु ॥२४॥
विषयः
इदं जगदेव तं दर्शयतीत्यनया शिक्षते ।
पदार्थः
हिरण्यये=हरन्ति परस्परमाकृषन्ति ये ते हिरण्याः परमाणवः । तन्मये । रथे=रमणीये समष्टिजगद्रथे ये युक्ताः=संयोजिताः । हरयः=अन्योन्यहरणशीलाः पृथिवीप्रभृतयः । यानि व्यष्टिभूतानि जगन्ति सन्ति तानीत्यर्थः । ते कति सन्तीत्यपेक्षायाम् । सहस्रम्, शतञ्च । सहस्रशतशब्दौ बहुवाचिनौ । अनन्ता इत्यर्थः । पुनः कथंभूताः । ब्रह्मयुजः=ब्रह्मणा चिच्छक्त्या युजो युक्ताः । नहि कानिचिदपि पृथिवीप्रभृतीनि जगन्ति आत्मशक्तिविरहितानि सन्ति । पुनः कथंभूताः । केशिनः=पर्वतद्रुमनदीप्रभृतिकेशवन्तः । तादृशा हरयः । हे इन्द्र ! त्वा=त्वाम् । सोमपीतये=सर्वेषां प्राणिनां यज्ञानुग्रहाय । आवहन्तु=आनयन्तु=प्रकाशयन्तु । यथा गुरुमत्याः शिलाया वहनाय महान् सुदृढतरः कश्चिद्रथ एव समर्थो भवति तथा सर्वेभ्यो गरीयस इन्द्रस्य वहनाय एतेभ्यो दृश्यमानेभ्यः सूर्य्यादिलोकेभ्यः किमन्यत्समर्थं भवेत् । अतस्तान्येव सूर्य्यादीनि जगन्ति परमात्मानमावहन्तु यावत् ॥२४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब समष्टिरूप से प्रार्थना करने का विधान कथन करते हैं।
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (हिरण्यये) ज्योतिःस्वरूप (रथे) ब्रह्माण्डों में (ब्रह्मयुजः) स्तुतियुक्त (केशिनः) प्रकाशमान (हरयः) मनुष्य (शतं, सहस्रं) सैकड़ों तथा सहस्रों (आयुक्ताः) मिलकर (सोमपीतये) ब्रह्मानन्द के लिये (त्वा) आपको (आवहन्तु) आह्वान करें ॥२४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में समष्टिरूप से उपासना करने का विधान किया गया है कि जो इन दिव्य ब्रह्माण्डों को रचकर व्यापक हो रहा है, वही परमात्मा हमारा उपासनीय है। हम लोग सैकड़ों तथा सहस्रों एक साथ मिलकर ब्रह्मानन्द के लिये उस दिव्यज्योति परमपिता परमात्मा की उपासना करें ॥२४॥
विषय
यह जगत् ही उसको दिखलाता है, यह शिक्षा इससे देते हैं ।
पदार्थ
वैदिक और लौकिक शब्द यद्यपि बहुधा समान हैं, तथापि बहुत से शब्दों के अर्थ में महान् अन्तर प्रतीत होता है । इस ऋचा के हिरण्यादि शब्दों पर ध्यान दीजिये (हिरण्यये) परस्पर आकर्षण करनेवाले परमाणुओं का नाम हिरण्य है । उन परमाणुओं से युक्त जो वस्तु वह हिरण्यय । (रथ) रमणीय समष्टिरूप जगत् ही यहाँ रथ है (ब्रह्मयुजः) चित्शक्ति अर्थात् चेतनशक्ति का नाम यहाँ ब्रह्म है । एक परमाणु भी उस चित्शक्ति से रहित नहीं है । (हरयः) पृथिवीलोक, सूर्यलोक, नक्षत्रलोक आदि जो भिन्न-२ जगत् हैं, वे यहाँ हरि कहे गए हैं, क्योंकि वे परस्पर गुण दोषों को अपने-२ में लेते हैं । (केशिनः) पर्वत, द्रुम, नदी प्रभृति ही यहाँ केश हैं । उन से युक्त जो हैं, वे केशी (सोमपीतये) सोमपान शब्द का अर्थ केवल यज्ञानुग्रह है, मनुष्यों के कर्मों पर अनुग्रह करना । अब सम्पूर्ण ऋचा का अर्थ इस प्रकार है−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (हिरण्यये) परस्पर आकर्षणयुक्त (रथे) परमरमणीय इस समष्टिरूप रथ में (युक्ताः) लगे हुए (हरयः) जो परस्पर हरणशील व्यष्टिभूत पृथिवी सूर्य्य आदि लोक हैं, वे (त्वा) तुझको (सोमपीतये) मनुष्यों के शुभ कर्मों पर अनुग्रह करने के लिये (आवहन्तु) प्रकाशित करें, तुझको दिखलावें । वे हरि कितने हैं, इस पर कहते हैं− (सहस्रम्+आ+शतम्) सहस्र और शत, ये दोनों शब्द बहुवाची हैं अर्थात् वे हरि बहुत-बहुत हैं । उनकी गणना नहीं हो सकती । केवल शत, सहस्र आदि शब्दों से वे पुकारे जाते हैं । पुनः वे कैसे हैं−(ब्रह्मयुजः) चित्शक्ति से युक्त हैं । पुनः (केशिनः) पर्वत, वृक्ष आदि केशों से संयुक्त हैं । वैसे हरि तुझको प्रकाशित करें । जैसे महती शिला को स्थानान्तरित करने के लिये कोई महान् रथ या यन्त्र ही समर्थ होता है, वैसे ही उस महान् परमात्मा को भी ढोनेवाले ये पृथिवी आदि जगत् ही हैं । वे ही यदि परमात्मा को प्रकाशित करें, तो हम लोग उसे जान सकते हैं, अन्यथा कोई उपाय नहीं ॥२४ ॥
भावार्थ
ब्रह्मज्ञान के लिये प्रथम यह जगत् अध्येतव्य है । क्योंकि कार्य ज्ञान से कर्ता के ज्ञान का संभव है । जैसे अष्टाध्यायी, रामायण आदि के पठन से पाणिनि और वाल्मीकि प्रभृतियों की बुद्धि का वैभव प्रतीत होता है । वैसे ही परमेश्वर कहाँ है, ऐसी जिज्ञासा होने पर सर्व वेद सर्व शास्त्र और सर्व आचार्य्य उत्तर देते हैं “इसी जगत् में सर्ववस्तु में वह विद्यमान है” । “हृदय में आत्मा है” । हृदय में ही अन्वेष्टव्य है । “आदित्य में वह है” आदित्य में अन्वेषणीय है” इस प्रकार के वाक्य प्रकृति की ओर हमको ले जाते हैं । अतः हे मनुष्यो ! अनन्त विभु को अनन्त जगत् में देखो । यह उपदेश इससे देते हैं ॥२४ ॥
विषय
प्रभु से प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
( हिरण्यये रथे ) सुवर्ण या लोह जटित रथ में जुते (केशिनः हरयः ) अयाल वाले अश्व जिस प्रकार रथस्वामी को ले जाते हैं उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! सेनापते ! (सहस्रं ) हज़ार २ और ( शतम् ) सौ सौ ( ब्रह्मयुजः ) अन्न, वेतनादि पर नियुक्त ( केशिनः ) उत्तम केशों से युक्त, तेजस्वी ( हरयः ) मनुष्य ( युक्ताः ) सावधान चित्त होकर ( सोम-पीतये ) ऐश्वर्यमय राज्य के पालन करने के लिये ( हिरण्यये रथे ) हित और सुन्दर रमण योग्य इस राष्ट्र में (त्वा) तुझे ( आ वहन्तु ) आदर पूर्वक अपने ऊपर धारण करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अर्वाञ्चि खानि [अन्तर्मुखी इन्द्रियाँ]
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (हिरण्यये रथे) = इस हितरमणीय, या तेजस्विता से दीप्त ज्योतिर्मय शरीर-रथ में (युक्ताः) = जुते हुए (इरयः) = इन्द्रियाश्व (आशतम्) = शतवर्षपर्यन्त (आ सहस्रम्) = [स+हस्] आनन्दमय- कोश तक (वहन्तु) = हमें प्राप्त करायें। ये इन्द्रियाश्व बाहर विषयों में न भटककर हमें अन्नमय कोश से ऊपर प्राणमयकोश में, वहाँ से मनोमय व विज्ञानमयकोश में होते हुए आनन्दमयकोश में प्राप्त करानेवाले हों। ताकि (सोमपीतये) = सोम का हम पान कर सकें, अर्थात् सोम का शरीर में ही रक्षणvकरनेवाले हों। [२] हे प्रभो ! इस प्रकार ये इन्द्रियाश्व (ब्रह्मयुज:) = एक महान् लक्ष्य से [ब्रह्म = great ] हमें सम्बद्ध करनेवाले हों। और (केशिनः) = प्रकाश की रश्मियोंवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- हमारी इन्द्रियाँ शरीर-रथ में जुती हुई विषयों में न भटककर हमें आनन्दमयकोश की ओर ले चलें। इस प्रकार ये हमें एक महान् लक्ष्य से सम्बद्ध करनेवाली हों और प्रकाश की रश्मियोंवाली हों।
इंग्लिश (1)
Meaning
May the hundreds and thousands of forces of nature and humanity harnessed to the golden chariot of the universe, radiant with light and dedicated to divinity, invoke and invite you hither into the heart so that we may experience the bliss of divine presence.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात समष्टिरूपाने उपासना करण्याचे विधान केलेले आहे. या दिव्य ब्रह्मांडाला निर्माण करून जो सर्वत्र व्यापक आहे, तोच ईश्वर आमचा उपासनीय आहे. आम्ही शेकडो व हजारो लोकांनी मिळून ब्रह्मानंदासाठी त्या दिव्यज्योती परमपिता परमेश्वराची उपासना करावी ॥२४॥
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