ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
यद्वा॑ य॒ज्ञं मन॑वे सम्मिमि॒क्षथु॑रे॒वेत्का॒ण्वस्य॑ बोधतम् । बृह॒स्पतिं॒ विश्वा॑न्दे॒वाँ अ॒हं हु॑व॒ इन्द्रा॒विष्णू॑ अ॒श्विना॑वाशु॒हेष॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒ । य॒ज्ञम् । मन॑वे । स॒म्ऽमि॒मि॒क्षथुः॑ । ए॒व । इत् । का॒ण्वस्य॑ । बो॒ध॒त॒म् । बृह॒स्पति॑म् । विश्वा॑न् । दे॒वान् । अ॒हम् । हु॒वे॒ । इन्द्रा॒विष्णू॒ इति॑ । अ॒श्विनौ॑ । आ॒शु॒ऽहेष॑सा ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वा यज्ञं मनवे सम्मिमिक्षथुरेवेत्काण्वस्य बोधतम् । बृहस्पतिं विश्वान्देवाँ अहं हुव इन्द्राविष्णू अश्विनावाशुहेषसा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वा । यज्ञम् । मनवे । सम्ऽमिमिक्षथुः । एव । इत् । काण्वस्य । बोधतम् । बृहस्पतिम् । विश्वान् । देवान् । अहम् । हुवे । इन्द्राविष्णू इति । अश्विनौ । आशुऽहेषसा ॥ ८.१०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
हे अश्विनौ ! (यद्वा) यथा वा (मनवे) ज्ञानिने जनाय (यज्ञम्, संमिमिक्षथुः) स्नेहेन संसिक्तवन्तौ (एवेत्) एवमेव (काण्वस्य) कण्वपुत्रस्य मम (बोधतम्) जानीतम् (बृहस्पतिम्) विद्वत्तमम् (विश्वान्, देवान्) सर्वान् देवान् (इन्द्राविष्णू) परमैश्वर्यवन्तम् स्वबलेन सर्वत्र व्यापकं च (आशुहेषसा) शीघ्रगाम्यश्वौ (अश्विनौ) सेनापतिसभाध्यक्षौ च (अहम्, हुवे) अहमाह्वयामि ॥२॥
विषयः
राजप्रजाकर्त्तव्यमाह ।
पदार्थः
हे अश्विनौ=राजानौ । युवाम् । यद्वा । येन प्रकारेण । मनवे=मनोः मननकर्त्तुर्योगिनः । यज्ञम्=शुभकर्म । संमिमिक्षथुः=सम्यग् रक्षथः । एवेत्=एवमेव । काण्वस्य=तत्त्वविदो विदुषोऽपि । यज्ञम् । बोधतम्=जानीतम् । हे अश्विना । अद्याहम् । बृहस्पतिम्=बृहतां शास्त्राणां पतिं स्वामिनम्=महाशास्त्रिणम् । पुनः । विश्वान्=सर्वान् देवान्=व्यवहारज्ञान् पुरुषान् । अपि च । आशुहेषसा=हेषृ शब्दे । आशु=शीघ्रम् । हेषसौ=शब्द्यमानौ=तूयमानौ । इन्द्राविष्णू=इन्द्रः=सेनानायकः । विष्णुः=निपुणतरो राजदूतः । यो गुप्तमन्त्रविज्ञानाय सर्वत्र प्रविशति स विष्णुः । इन्द्रश्च विष्णुश्चेति इन्द्राविष्णू । हुवे=स्वयज्ञे निमन्त्रयामि= आह्वयामि । अतो हे अश्विनौ युवामवश्यमागच्छतम् ॥२ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
हे व्यापकशक्तिवाले ! (यद्वा) जिस प्रकार (मनवे) ज्ञानी जनों के (यज्ञम्) यज्ञ को (संमिमिक्षथुः) स्नेह से संसिक्त करते हैं (एवेत्) इसी प्रकार (काण्वस्य) विद्वत्पुत्रों के यज्ञ को (बोधतम्) जानें। (बृहस्पतिम्) बृहत् विद्वान् को (विश्वान्, देवान्) सब देवों को (इन्द्राविष्णू) परमैश्वर्यवाले तथा व्यापक को (आशुहेषसा, अश्विनौ) शीघ्रगामी अश्ववाले सेनापति और सभाध्यक्ष को (अहम्, हुवे) मैं आह्वान करता हूँ ॥२॥
भावार्थ
हे सर्वत्र प्रसिद्ध, हे सब विद्वानों की कामनाओं को पूर्ण करनेवाले सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! जिस प्रकार आप ज्ञानी जनों के यज्ञ को प्राप्त होकर उनकी कामनाओं को पूर्ण करते हैं, इसी प्रकार आप हम विद्वत्पुत्रों के यज्ञ को प्राप्त होकर हमारे यज्ञ की त्रुटियों को पूर्ण करनेवाले हों ॥२॥
विषय
राजा और प्रजाओं का कर्त्तव्य कहते हैं ।
पदार्थ
(अश्विनौ) हे पुण्यकृत राजा और अमात्यादिवर्ग ! आप दोनों (यद्वा) जिस प्रकार (मनवे) मननकर्ता योगीजन के (यज्ञम्) शुभकर्म की (संमिमिक्षथुः) अच्छे प्रकार रक्षा करते हैं (एव+इत्) उसी प्रकार (काण्वस्य) अन्य तत्त्वविद् विद्वान् के भी शुभकर्म को (बोधतम्) स्मरण रखिये । हे राजन् ! आज (अहम्) मैं (बृहस्पतिम्) शास्त्रों के महास्वामी महाशास्त्री को और (विश्वान्+देवान्) सम्पूर्ण व्यवहारकुशल पुरुषों को तथा (आशुहेषसा) शीघ्र स्तूयमान (इन्द्राविष्णू) सेनानायक और राजदूत को अपने यज्ञ में (हुवे) बुलाता हूँ । अतः हे राजन् और अमात्यादिवर्ग आप दोनों यहाँ अवश्य-अवश्य आवें ॥२ ॥
भावार्थ
मनु=मननकर्ता और कण्व=ग्रन्थकर्त्ता, ये दोनों सदा सर्वकार्य्यसिद्धार्थ रक्षणीय हैं । यज्ञ में जैसे राजा, राज्ञी और अमात्यादि बुलाए जाते हैं, वैसे ही अन्य कर्मचारी व्यवहारज्ञ और कार्यकुशल देशजन भी निमन्त्रणयोग्य हैं ॥२ ॥
विषय
जितेन्द्रिय स्त्रीपुरुषों के कर्त्तव्य । वेग से जाने वाले साधनों से सम्पन्न पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यद्-वा ) और जब आप दोनों ( मनवे ) मनुष्य मात्र के हित के लिये ( यज्ञं सं मिमिक्षथुः ) यज्ञ को परस्पर मिलकर एक साथ करो, तब भी ( एव इत् काण्वस्य बोधतम् ) विद्वान् जनों को उसका ज्ञान करा दिया करो। ( बृहस्पतिम् ) सबसे बड़े राष्ट्र और वेद वाणी के पालक, और ( विश्वान् देवान् ) समस्त मनुष्य प्रजावर्ग या विद्याभिलाषी विद्यार्थियों को और ( इन्द्राविष्णू ) ऐश्वर्यवान् राजा व्यापक सामर्थ्य वाले सेनापति इन दोनों को और ( आशु-हेषसा ) शीघ्र ही उत्तम ध्वनि करने वाले ( अश्विना ) अश्वारोही वा जितेन्द्रिय जनों को ( अहं हुवे ) आदर पूर्वक प्रार्थना करूं कि वे मेरे यज्ञ में अवश्य आया करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथ: काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, ५ आर्ची स्वराड् बृहती। २ त्रिष्टुप्। ३ आर्ची भुरिगनुष्टुप्। ४ आर्चीभुरिक पंक्तिः। ६ आर्षी स्वराड् बृहती॥ षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
'यज्ञ-ज्ञान व दिव्य गुण'
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! आप (यद्) = जब (वा) = निश्चय से (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिये (यज्ञम्) = यज्ञ को (संमिमिक्षथुः) = सिक्त करते हो, इसके जीवन को यज्ञमय बना देते हो, तो उस समय (एवा इत्) = इस प्रकार निश्चय से (काण्वस्य) = इस मेधावी पुरुष का (बोधतम्) = पूरी तरह ध्यान करते हो, इसका रक्षण करते हो। [२] हे (आशुहेषसा) = इन्द्रियाश्वों को शीघ्रता से कार्यों में प्रेरित करनेवाले (अश्विना) = प्राणापानो! (अहम्) = मैं आपकी साधना द्वारा (बृहस्पतिम्) = ज्ञान के अधिष्ठातृदेव प्रभु को (हुवे) = पुकारता हूँ। इस ज्ञान के द्वारा (विश्वान् देवान्) = सब देवों को पुकारता हूँ और (इन्द्राविष्णू) = सब देवों में भी विशेषकर इन्द्र और विष्णु को पुकारता हूँ। सब दिव्यगुणों को धारण करता हुआ विशेषतया जितेन्द्रियता व व्यापकता के धारण का प्रयत्न करता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा जीवन यज्ञमय बने। हम प्राणसाधना करते हुए 'ज्ञान, दिव्यगुणों, जितेन्द्रियता व उदारता' की ओर झुकें।
इंग्लिश (1)
Meaning
If you sprinkle the yajna of the learned man of thought with ghrta and feed it with havi compounds, know, value and sprinkle the yajna of the children of the sages too the same way. Ashvins, I invoke Brhaspati, lord of the cosmos and cosmic knowledge, all learned men of the world, Indra, ruler of world powers, and Vishnu, lord omnipresent.
मराठी (1)
भावार्थ
हे सर्वत्र प्रसिद्ध सर्व विद्वानांच्या कामना पूर्ण करणाऱ्या सभाध्यक्षा व सेनाध्यक्षा, ज्या प्रकारे तुम्ही ज्ञानी लोकांच्या यज्ञाला प्राप्त करून त्यांच्या कामना पूर्ण करता. याचप्रकारे तुम्ही आम्हा विद्वानांच्या पुत्रांना भेटून यज्ञासंबंधीच्या त्रुटी पूर्ण करा. ॥२॥
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