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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 101/ मन्त्र 4
    ऋषिः - जमदग्निभार्गवः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    न यः स॒म्पृच्छे॒ न पुन॒र्हवी॑तवे॒ न सं॑वा॒दाय॒ रम॑ते । तस्मा॑न्नो अ॒द्य समृ॑तेरुरुष्यतं बा॒हुभ्यां॑ न उरुष्यतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । यः । स॒म्ऽपृच्छे॑ । न । पुनः॑ । हवी॑तवे । न । स॒म्ऽवा॒दाय॑ । रम॑ते । तस्मा॑त् । नः॒ । अ॒द्य । सम्ऽऋ॑तेः । उ॒रु॒ष्य॒त॒म् । बा॒हुऽभ्या॑म् । नः॒ । उ॒रु॒ष्य॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न यः सम्पृच्छे न पुनर्हवीतवे न संवादाय रमते । तस्मान्नो अद्य समृतेरुरुष्यतं बाहुभ्यां न उरुष्यतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । यः । सम्ऽपृच्छे । न । पुनः । हवीतवे । न । सम्ऽवादाय । रमते । तस्मात् । नः । अद्य । सम्ऽऋतेः । उरुष्यतम् । बाहुऽभ्याम् । नः । उरुष्यतम् ॥ ८.१०१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 101; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    One who takes no interest in learning by question and answer, or in the yajnic circulation of wealth, or in social discourse is no good. O Mitra and Varuna, rulers, leaders, teachers and pioneers of love and judgement, save us from unnecessary encounters with him, protect us by your arms of love and wisdom.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवनपथावर चालणाऱ्यामध्ये (स्त्री, पुरुषामध्ये) मतभेद शक्य आहे, परंतु प्रश्नोत्तराने त्याचे विश्लेषण करावे. काही घेऊन काही देऊन व शेवटी प्रत्यक्षरूपाने परामर्श करून परस्पर संघर्षापासून बचाव केला जाऊ शकतो. जीवनयात्रेतील सहप्रवासी असणाऱ्यांनी अशा प्रकारे आपापसातील संघर्षापासून बचाव करावा. कधी संघर्ष किंवा युद्धाचा प्रसंग येऊ देता कामा नये. ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो (न) न तो (संपृच्छे) प्रश्नोत्तर की विधि में (रमते) रुचि लेता है; (पुनः न) न ही फिर (हवीतवे) हवन अर्थात् दान+आदान क्रिया में रुचि रखता है और (न)(संवादाय) संवाद हेतु तैयार है; (नः अद्य) अभी-अभी हमें--समाज को (तस्मात्) उससे आने वाली (समृतेः) टक्कर से (उरुष्यतम्) बचाओ; (बाहुभ्याम्) बल तथा पराक्रम की प्रतीक इन भुजाओं से (नः उरुष्यतम्) हमें बचाए रखो॥४॥

    भावार्थ

    जीवनपथ पर एक साथ चलनेवालों में मतभेद तो सम्भव है; परन्तु प्रश्नोत्तर से उनका विश्लेषण कर, कुछ लेकर और कुछ देकर एवं अन्त में प्रत्यक्ष रूप से वाद-विवाद द्वारा समझौता कर परस्पर संघर्ष से बचा जा सकता है। जीवनयात्रा के साथियों को उचित है कि वे इसी प्रकार से आपसी टकराव से बचें, कभी संघर्ष का अवसर न आने दें॥४॥

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    विषय

    प्रजा की राजा से विशेष याचनाएं।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( संपृच्छे न रमते ) अच्छी प्रकार प्रश्न पूछने पर भी प्रसन्नतापूर्वक उत्तर नहीं देता, (न पुनः हवीतये रमते ) न बुलाने पर ही प्रसन्न होता है और ( न संवादाय रमते ) न परस्पर संवाद के लिये ही हर्षपूर्वक अनुमति देता है, ( तस्मात् सम् ऋतेः ) उस शत्रु के साथ संग्राम से ( नः अद्य उरुष्यतम् ) हमारी आज रक्षा करो और (बाहुभ्यां नः उरुष्यतम् ) उस के बाहुओं से हमें बचाओ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्भार्गव ऋषिः। देवताः—१—५ मित्रावरुणौ। ५, ६ आदित्याः। ७, ८ अश्विनौ। ९, १० वायुः। ११, १२ सूर्यः। १३ उषाः सूर्यप्रभा वा। १४ पवमानः। १५, १६ गौः॥ छन्दः—१ निचृद् बृहती। ६, ७, ९, ११ विराड् बृहती। १२ भुरिग्बृहती। १० स्वराड् बृहती। ५ आर्ची स्वराड् बृहती। १३ आर्ची बृहती। २, ४, ८ पंक्तिः। ३ गायत्री। १४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १५ त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    बाहुभ्यां न उरुष्यतम्

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो कामासक्ति (संपृच्छे) = प्रभु विषयक सम्प्रश्न के लिये (न रमते) = आनन्दित नहीं होती, [कामासक्त पुरुष को प्रभु विषयक प्रश्न ही रुचिकर नहीं होता] । (पुनः) = फिर जो क्रोध (हवीतवे) = प्रभु को पुकारने के लिये (न) [ रमते] = प्रीतिवाला नहीं होता, [क्रोध में प्रभु का नाम न लेकर वाणी अपशब्दों को ही बोलती है ] । जो लोभ (संवादाय) = प्रभु विषयक वार्ता के लिये न [रमते] आनन्द का अनुभव नहीं करता। (नः) = हमें हे मित्र और वरुण, स्नेह व निर्दोषता के भाव ! आज (तस्मात् समृते:) = इस वासना के आक्रमण से (उष्यतम्) = आप बचाओ। हम काम, क्रोध, अद्य लोभ में न फँसकर प्रभु की चर्चा में स्वाद लें। प्रभु के विषय में ही सम्प्रश्न करें, प्रभु को ही पुकारें, परस्पर आत्मविषयक संवाद ही करनेवाले हों। (२) हे (मित्रावरुणौ) = स्नेह व निर्देषता के भावो ! आप (बाहुभ्याम्) = अभ्युदय व निःश्रेयस विषयक प्रयत्नों के द्वारा, निरन्तर कर्मों में लगे रहने के द्वारा (नः) = हमें (उरुष्यतम्) = काम-क्रोध-लोभ के आक्रमण से बचायें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'मित्र' का स्तवन करते हुए परस्पर मेलवाले हों। 'अर्यमा' का स्तवन करते हुए शत्रुओं के आक्रमण से अपने को बचायें। 'वरुण' की आराधना ही हमारा छादन हो। इस प्रकार हमारा जीवन दीप्त बने।

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