ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 103/ मन्त्र 10
ऋषिः - सोभरिः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिगार्चीगायत्री
स्वरः - षड्जः
प्रेष्ठ॑मु प्रि॒याणां॑ स्तु॒ह्या॑सा॒वाति॑थिम् । अ॒ग्निं रथा॑नां॒ यम॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रेष्ठ॑म् । ऊँ॒ इति॑ । प्रि॒याणा॑म् । स्तु॒हि । आ॒सा॒व॒ । अति॑थिम् । अ॒ग्निम् । रथा॑नाम् । यम॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रेष्ठमु प्रियाणां स्तुह्यासावातिथिम् । अग्निं रथानां यमम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रेष्ठम् । ऊँ इति । प्रियाणाम् । स्तुहि । आसाव । अतिथिम् । अग्निम् । रथानाम् । यमम् ॥ ८.१०३.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 103; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O yajaka, creator of the soma joy of life, adore and worship Agni, light of life, dearest of the dear, harbinger of the joy of life in response to your endeavour, and coming up like a visitor at will any time.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञानस्वरूप परमेश्वराच्या गुणांचे निरंतर श्रवण, मनन व निदिध्यासन करत राहिले पाहिजे - साधकाने परमेश्वरालाच अत्यंत प्रिय समजले पाहिजे. पदार्थाच्या ज्ञानाबरोबर त्याचे महत्त्व हृदयंगम होते तेव्हा तो परमेश्वरही अचानक उद्भूत होतो. ॥१०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (आसाव) अभिषवकर्ता, सृष्ट पदार्थों का सार तथा उनका ज्ञानरूपी रस निकालने वाले साधक! (रथानाम्) आनन्दों के (यमम्) नियामक-नियन्त्रित आनन्द देने वाले (प्रियाणाम्) प्यारों में (प्रेष्ठम्) सर्वाधिक प्रिय अतिथि-अचानक ही, बिना किसी नियत समय के अन्तःकरण में उद्भूत हो जाने वाले (अग्निम्) ज्ञानस्वरूप प्रभु की (स्तुहि) वन्दना कर॥१०॥
भावार्थ
ज्ञानस्वरूप प्रभु के गुणों का सतत श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन करते रहो--साधक को उसे ही अपना सर्वाधिक प्रिय समझना चाहिये--पदार्थ ज्ञान के साथ-साथ उसका महत्त्व जब हृदयङ्गम होगा तो वह भी अचानक उद्भूत होगा।॥१०॥
विषय
भक्तों पर प्रभु की कृपा।
भावार्थ
हे ( आसाव ) आदरपूर्वक स्तुति करने हारे, अग्नि आदि के उत्पन्न करने में समर्थ ज्ञानवन् ! तू ( प्रियाणां प्रेष्ठम् ) प्रियों में सर्व प्रिय, ( अतिथिम् ) सब से ऊपर विद्यमान, सर्वपूज्य, ( रथानाम् यमम् ) रथों के नियामक विद्युत् के समान सब देहों में वा सूर्यादि लोकों के नियन्ता ( अग्निं ) तेजस्वी संञ्चालक आत्मा की ( स्तुहि ) स्तुति, उपदेश कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरि: काण्व ऋषिः॥ १—१३ अग्निः। १४ अग्निर्मरुतश्च देवताः॥ छन्दः—१, ३, १३, विराड् बृहती। २ निचृद् बृहती। ४ बृहती। ६ आर्ची स्वराड् बृहती। ७, ९ स्वराड् बृहती। ६ पंक्तिः। ११ निचृत् पंक्ति:। १० आर्ची भुरिग् गायत्री। ८ निचृदुष्णिक्। १२ विराडुष्णिक्॥
विषय
प्रियाणां प्रेष्ठम्
पदार्थ
[१] हे (आसाव) = शरीर में समन्तात् सोम का सम्पादन करनेवाले स्तोतः ! तू उस (अतिथिम्) = निरन्तर गतिशील महान् अतिथि प्रभु को (स्तुहि) = स्तुत कर, जो प्रभु (उ) = निश्चय से (प्रियाणां प्रेष्ठम्) = प्रियों में प्रियतम हैं। [२] उस प्रभु को स्तुत कर जो (अग्निम्) = तुझे आगे और आगे ले चलनेवाले हैं। तथा (रथानां यमम्) = शरीर - रथों के नियन्ता हैं।
भावार्थ
भावार्थ-स्तोता के प्रभु प्रियतम अतिथि हैं, उसे आगे ले चलनेवाले हैं और उसके रथ के नियन्ता हैं।
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