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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वम॑ग्ने व्रत॒पा अ॑सि दे॒व आ मर्त्ये॒ष्वा । त्वं य॒ज्ञेष्वीड्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । व्र॒त॒ऽपाः । अ॒सि॒ । दे॒वः । आ । मर्त्ये॑षु । आ । त्वम् । य॒ज्ञेषु॑ । ईड्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने व्रतपा असि देव आ मर्त्येष्वा । त्वं यज्ञेष्वीड्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । अग्ने । व्रतऽपाः । असि । देवः । आ । मर्त्येषु । आ । त्वम् । यज्ञेषु । ईड्यः ॥ ८.११.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथाष्टमाध्यायमुपसंहरन् परमात्मानं स्तौति।

    पदार्थः

    (अग्ने) हे परमात्मन् ! (देवः, त्वम्) द्योतमानस्त्वम् (मर्त्येषु, आ) सर्वमर्त्येषु (व्रतपाः, असि) कर्मरक्षकोऽसि अतः (त्वम्, आ) त्वं समन्तात् आदौ (यज्ञेषु, ईड्यः) यज्ञेषु स्तुत्यो भवसि ॥१॥

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    विषयः

    अग्निवाच्यः परमात्मा स्तूयते ।

    पदार्थः

    हे अग्ने=सर्वव्यापिन् परमात्मन् ! त्वं व्रतपा असि=सर्वेषां व्रतानां नित्यनियमानां च पालको भवसि । त्वमेवैकः । मर्त्येषु=मनुष्येषु । आशब्दश्चार्थः । आ पुनः । देवेषु । देवः=स्तुत्योऽसि । आ पुनः । यज्ञेषु=सर्वेषु शुभकर्मसु । त्वमेव ईड्यः=पूज्योऽसि ॥१ ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब इस अष्टमाध्याय के उपसंहार में परमात्मा की स्तुति वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे परमात्मन् ! (देवः, त्वम्) सर्वत्र प्रकाश करते हुए आप (मर्त्येषु, आ) सर्वमनुष्यों के मध्य में (व्रतपाः, असि) कर्मों के रक्षक हैं, इससे (त्वम्) आप (यज्ञेषु) यज्ञों में (आ, ईड्यः) प्रथम ही स्तुतिविषय किये जाते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    हे सर्वरक्षक, सर्वव्यापक, सर्वप्रतिपालक परमात्मन् ! आप सबके पिता=पालन, पोषण तथा रक्षण करनेवाले और सबको कर्मानुसार फल देनेवाले हैं, इसीलिये आपकी यज्ञादि शुभकर्मों में प्रथम ही स्तुति की जाती है कि आपके अनुग्रह से हमारा यह शुभ कर्म पूर्ण हो ॥१॥

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    विषय

    अग्निवाच्य परमात्मा की स्तुति कहते हैं ।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वव्यापिन् परमात्मन् ! (त्वम्) तू ही (व्रतपाः+असि) संसार के नित्य नियमों और भक्तों के व्रतों का पालक है (आ) और (मर्त्येषु) मनुष्यों में तथा देवों में (देवः) तू ही स्तुत्य है (आ) और (त्वम्) तू ही (यज्ञेषु) यज्ञों में (ईड्यः) पूज्य है ॥१ ॥

    भावार्थ

    सर्वत्र यज्ञों, शुभकर्मों और गृह्यकर्मों में एक परमात्मा ही पूज्य है ॥१ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, self-refulgent lord giver of light, you are preserver and protector of karmic laws, moral commitments and sacred vows among mortals. Hence you are adored and worshipped in yajnas.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे सर्वरक्षक, सर्वव्यापक प्रतिपालक परमेश्वरा, तू सर्वांचा पिता= पालन, पोषण व रक्षण करणारा असून कर्मानुसार फळ देतोस. त्यामुळे यज्ञ इत्यादी शुभ कर्मात प्रथम तुझी स्तुती केली जाते की, तुझ्या अनुग्रहाने आमचे शुभ कर्म पूर्ण व्हावे. ॥१॥

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