ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 16
यत्सोम॑मिन्द्र॒ विष्ण॑वि॒ यद्वा॑ घ त्रि॒त आ॒प्त्ये । यद्वा॑ म॒रुत्सु॒ मन्द॑से॒ समिन्दु॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । विष्ण॑वि । यत् । वा॒ । घ॒ । त्रि॒ते । आ॒प्त्ये । यत् । वा॒ । म॒रुत्ऽसु॑ । मन्द॑से । सम् । इन्दु॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्सोममिन्द्र विष्णवि यद्वा घ त्रित आप्त्ये । यद्वा मरुत्सु मन्दसे समिन्दुभिः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । सोमम् । इन्द्र । विष्णवि । यत् । वा । घ । त्रिते । आप्त्ये । यत् । वा । मरुत्ऽसु । मन्दसे । सम् । इन्दुऽभिः ॥ ८.१२.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यत्, सोमम्) यां शक्तिम् (विष्णवि) सूर्ये (यद्वा) या च (त्रिते, घ, आप्त्ये) आप्तव्ये त्रिते श्रोत्रिये (यद्वा) यां च (इन्दुभिः) दीप्तिभिः सह (मरुत्सु) वीरेषु (संमन्दसे) वर्धयसि, सा ते शक्तिः ॥१६॥
विषयः
तदीयपोषणं दर्शयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! विष्णवि=विष्णौ, सूर्ये=सूर्यलोके यद् यं सोमं वस्तु । मन्दसे=आनन्दयसि=पुष्णासि । यद्वा । आप्त्ये=अद्भिः पूर्णे जलसंतते । त्रिते=त्रिलोके यं सोमं मन्दसे । यद्वा । मरुत्सु=वायुषु यं सोमम् । मन्दसे=पुष्णासि । तैरिन्दुभिः सर्वैः पदार्थैः सह वर्तमानं त्वां अहं संस्तौमि ॥१६ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यत्, सोमम्) जो शक्ति (विष्णवि) सूर्य में है (यद्वा) और जो (त्रिते, घ, आप्त्ये) तीन विद्याओं के जाननेवाले आप्त में है (यद्वा) और जो (इन्दुभिः) दीप्ति के साथ (मरुत्सु) वीरों में है, (संमन्दसे) उसको आप ही बढ़ाते हैं ॥१६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा को सर्वशक्तिसम्पन्न वर्णन किया गया है कि सूर्य्य, चन्द्रमादि दिव्य पदार्थों में जो शक्ति है, वह आप ही की दी हुई है और कर्म, उपासना तथा ज्ञानसम्पन्न विद्वानों और जो क्षात्रधर्म का पालन करनेवाले शूरवीरों में पराक्रम है, वह आप ही का प्रदत्त बल है। आपकी शक्ति तथा कृपा के बिना जड़-चेतन कोई भी पदार्थ न उन्नत हो सकता और न स्थिर रह सकता है ॥१६॥
विषय
उसी का पोषण दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र (विष्णवि) विष्णु=सूर्य्यलोक में (यत्+सोमम्) जिस सोम=वस्तु को तू (मन्दसे) आनन्दित कर रहा है, (यद्वा) यद्वा (आप्त्ये) जलपूर्ण (त्रिते) त्रिलोक में जिस सोम को तू आनन्दित कर रहा है, (यद्वा) यद्वा (मरुत्सु) मरुद्गणों में जिस सोम को तू आनन्दित कर रहा है, (इन्दुभिः) उन सब वस्तुओं के साथ विद्यमान तेरी (सम्+घ) अच्छे प्रकार से मैं स्तुति करता हूँ, हे देव ! तू प्रसन्न हो ॥१६ ॥
भावार्थ
ईश्वर सूर्य्य से लेकर तृणपर्य्यन्त व्याप्त है और सबका भरण-पोषण कर रहा है ॥१६ ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( यत् ) जो तू ( विष्णवि ) व्यापक प्रकाश वाले सूर्य के आधार पर, ( यद्वा घ आप्त्ये ) और जो तू जलों से पूर्ण ( त्रिते ) तीनों लोकों के आश्रय और ( यद्वा मरुत्सु ) वा प्राणों के आश्रय पर, ( इन्दुभिः ) ऐश्वर्य युक्त पदार्थों द्वारा ( सोमम् ) उत्पन्न होने वाले जीव या जगत् को ( सम् मन्दसे ) भली प्रकार प्रसन्न और आनन्दित करता है इस कारण तू दयालु, सर्वप्रद, सर्वोपास्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
विष्णु त्रित व आप्त्य
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यत्) = जब आप (विष्णवि) = [विष् व्याप्तौ] व्यापक उदार हृदयवाले पुरुष में (सोमम्) = सोम को (सं मन्दसे) = प्रशंसित करते हैं। (यद्वा) = अथवा (घ) = निश्चय से (त्रिते) = [त्रीन् तनोति] 'ज्ञान, कर्म, उपासना' तीनों का विस्तार करनेवाले में आप सोम को प्रशंसित करते हैं, (आप्त्ये) = आप्तों में उत्तम पुरुषों में आप इस सोम को प्रशंसित करते हैं। अर्थात् यह सोमरक्षण ही उन्हें 'विष्णु, त्रित व आप्त्य' बनाता है। एक पुरुष में उदारता [विष्णु] 'ज्ञान, कर्म, उपासना' तीनों के विस्तार [त्रित] व आप्तता को देखकर और इन बातों को सोममूलक जानकर लोग सोम का प्रशंसन तो करेंगे ही। [२] (यद् वा) = अथवा हे इन्द्र ! आप (मरुत्सु) = इन प्राणसाधक पुरुषों में (इन्दुभिः) = इन सुरक्षित सोमकणों से (संमन्दसे) = [To shine] चमकते हैं। सोमकणों का संरक्षण ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है, यह बुद्धि को तीव्र बनाता है। इस तीव्र बुद्धि से प्रभु का दर्शन होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से हम उदार हृदय, ज्ञान, कर्म, उपासना का विस्तार करनेवाले व आप्त बनते हैं। प्राणसाधना के होने पर सुरक्षित हुआ हुआ सोम ही हमें प्रभु-दर्शन के योग्य बनाता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, the soma nectar which you infuse in the sun and in the three worlds of experience, i.e., earth, heaven and firmament and which you infuse in the winds and enjoy to the last drop, we pray for.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर हा सूर्यापासून तृणापर्यंत व्याप्त आहे व सर्वांचे भरणपोषण करत आहे. ॥१६॥
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