ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 19
ऋषिः - पर्वतः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडार्ष्युष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
दे॒वंदे॑वं॒ वोऽव॑स॒ इन्द्र॑मिन्द्रं गृणी॒षणि॑ । अधा॑ य॒ज्ञाय॑ तु॒र्वणे॒ व्या॑नशुः ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वम्ऽदे॑वम् । वः॒ । अव॑से । इन्द्र॑म्ऽइन्द्रम् । गृ॒णी॒षणि॑ । अध॑ । य॒ज्ञाय॑ । तु॒र्वणे॑ । वि । आ॒न॒शुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवंदेवं वोऽवस इन्द्रमिन्द्रं गृणीषणि । अधा यज्ञाय तुर्वणे व्यानशुः ॥
स्वर रहित पद पाठदेवम्ऽदेवम् । वः । अवसे । इन्द्रम्ऽइन्द्रम् । गृणीषणि । अध । यज्ञाय । तुर्वणे । वि । आनशुः ॥ ८.१२.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
हे प्रजाः ! (वः, अवसे) युष्माकं रक्षायै (देवं-देवम्) सर्वान् ब्रह्मविद्याकुशलान् (इन्द्रमिन्द्रम्) सर्वान् पदार्थविद्याकुशलाँश्च (गृणीषणि) आह्वातुं स्तुमः (अध) अथ (यज्ञाय) यज्ञं कर्तुम् (तुर्वणे) शत्रून् हिंसितुं च (व्यानशुः) ते सर्वत्र व्याप्ता भवन्ति ॥१९॥
विषयः
तदीयकृपां दर्शयति ।
पदार्थः
हे मनुष्याः ! वः=युष्माकम् । अवसे=रक्षणाय । देवं देवम्=दिव्यगुणयुक्तम् । इन्द्रमिन्द्रम्=इन्द्रमेव नान्यं सूर्य्यादिदेवम् । वीप्सा इतर सर्वदेवनिवृत्यर्था । गृणीषणि=गुणान् प्रकटयामि । यदाहं गुणान् प्रकाशयामि । अधा=अनन्तरम् । तुर्वणे=सर्वविघ्नविनाशकाय । यज्ञाय । मनुष्याः । व्यानशुः= संगच्छन्ते=संमिलिता भवन्ति ॥१९ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
हे प्रजाजनो ! (वः, अवसे) आपकी रक्षा के लिये (देवं-देवम्) प्रत्येक ब्रह्मविद्यावेत्ता तथा (इन्द्रमिन्द्रम्) प्रत्येक पदार्थविद्यावेत्ता को (गृणीषणि) आह्वान के लिये स्तुति करते हैं (अध) और ये लोग (यज्ञाय) यज्ञ के अर्थ (तुर्वणे) तथा शत्रु की हिंसा के अर्थ (व्यानशुः) सर्वत्र ही व्याप्त रहते हैं ॥१९॥
भावार्थ
हे प्रजाजनो ! ब्रह्मविद्यावेत्ता तथा पदार्थविद्यावेत्ता विद्वानों की रक्षा से सुरक्षित होकर अपने यज्ञों को पूर्ण करो और उनकी सहायता से शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो, ताकि तुम्हारे यज्ञादि शुभ कार्य्य सदा पूर्ण हों ॥१९॥
विषय
उसकी कृपा दिखाते हैं ।
पदार्थ
हे मनुष्यों ! (वः) तुम्हारे (अवसे) रक्षणार्थ (देवम्+देवम्) विविध गुणों से युक्त (इन्द्रम्+इन्द्रम्) केवल इन्द्र के ही जब (गृणीषणि) गुणों को मैं प्रकाशित करता हूँ (अधा) तदनन्तर (तुर्वणे) सर्वविघ्नविनाशक (यज्ञाय) यज्ञ के लिये (व्यानशुः) मनुष्य इकट्ठे होते हैं ॥१९ ॥
भावार्थ
प्रत्येक विद्वान् को उचित है कि वह शुभकर्म की व्याख्या करे और प्रजाओं को सत्पथ पर लावे ॥१९ ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! मैं ( वः ) आप लोगों को ( देव-देवं ) सर्वत्र प्रकाशमान और ( इन्द्रम्-इन्द्रम् ) सर्वत्र ऐश्वर्यवान् विघ्नविनाशक प्रभु को ( अवसे ) प्राप्त करने का ( गृणीषणि ) उपदेश करता हूं ( अध ) और ( तुर्वणे ) सब दुःखों और दुष्टों के नाशक ( यज्ञाय ) सर्वोपास्य परमेश्वर के ही ये समस्त ऐश्वर्य जगत् में ( वि-आनशुः ) विविध प्रकार से व्याप रहे हैं और समस्त ( तुर्वणे यज्ञाय ) दुःख-विघ्ननाशक सर्वदाता प्रभु को ही समस्त भक्त विविध उपायों से प्राप्त होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञया तुर्वणे
पदार्थ
[१] (देवम्) = उस प्रकाशमय (वः देवम्) = तुम्हें प्रकाशित करनेवाले (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली [व:] (इन्द्र) = तुम्हें ऐश्वर्यों को प्राप्त करानेवाले प्रभु को अवसे रक्षण के लिये (गृणीषणि) = स्तुत करता हूँ। [२] (अधा) = अब (तुर्वणे) = शत्रुओं का हिंसन करनेवाले (यज्ञाय) = पूजनीय प्रभु के लिये (व्यानशुः) = मेरी स्तुतियाँ व्याप्त होती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-स्तवन से हमारा जीवन प्रकाशमय बनता है [देवम्], ऐश्वर्यशाली होता है [इन्द्रम्], यह स्तवन हमें रोगों व वासनाओं से बचाता है [अवसे], हमारे शत्रुओं का हिंसन करता है [तुर्वणे] ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O dedicated performers of yajna, for the sake of your protection and progress in your acts of homage and adoration, may all these soma joys of life reach you to every generous and brilliant yajaka, to every yajaka of power and prominence, for the elimination of all obstructions in the way of corporate action.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रत्येक विद्वानाने शुभ कर्माची व्याख्या करावी व प्रजेला सन्मार्गाकडे न्यावे ॥१९॥
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