ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 20
य॒ज्ञेभि॑र्य॒ज्ञवा॑हसं॒ सोमे॑भिः सोम॒पात॑मम् । होत्रा॑भि॒रिन्द्रं॑ वावृधु॒र्व्या॑नशुः ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञेभिः॑ । य॒ज्ञऽवा॑हसम् । सोमे॑भिः । सो॒म॒ऽपात॑मम् । होत्रा॑भिः । इन्द्र॑म् । व॒वृ॒धुः॒ । वि । आ॒न॒शुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञेभिर्यज्ञवाहसं सोमेभिः सोमपातमम् । होत्राभिरिन्द्रं वावृधुर्व्यानशुः ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञेभिः । यज्ञऽवाहसम् । सोमेभिः । सोमऽपातमम् । होत्राभिः । इन्द्रम् । ववृधुः । वि । आनशुः ॥ ८.१२.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 20
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(यज्ञवाहसम्) यज्ञस्य वोढारम् (यज्ञेभिः) यज्ञद्वारा (सोमपातमम्) सोमपानशीलम् (सोमेभिः) सोमरसैः (इन्द्रम्) परमात्मानम् (होत्राभिः) स्तोत्रैः (वावृधुः) वर्धयन्ति तर्पयन्ति, याज्ञिकाः ते च सर्वे (व्यानशुः) सर्वत्र व्याप्नुवन्ति ॥२०॥
विषयः
पुनरपि तदीयकृपां दर्शयति ।
पदार्थः
यज्ञेभिः=यज्ञैः क्रियमाणैः सह । यज्ञवाहसम्=यज्ञानां वाहकं निर्वाहकम् । सोमेभिः=सर्वैः सोतव्यैः पदार्थैः सह । सोमपातमम्=अतिशयनेन पदार्थरक्षकं च इन्द्रम् । होत्राभिः=होमकर्मभिः । जनाः । वावृधुः=वर्धयन्ति=स्तुवन्ति । तदा सर्वे इतरे जना व्यानशुः=तत्र संगता भवन्ति ॥२० ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
याज्ञिकजन (यज्ञवाहसम्) यज्ञ के नेता को (यज्ञेभिः) यज्ञों द्वारा (सोमपातमम्) सोम के पाता को (सोमेभिः) सोमरस द्वारा (इन्द्रम्) परमात्मा को (होत्राभिः) स्तुति द्वारा (वावृधुः) तृप्त करते हैं और ये सब (व्यानशुः) सर्वत्र व्याप्त रहते हैं ॥२०॥
भावार्थ
हे याज्ञिक पुरुषो ! तुम यज्ञ के नेता को यज्ञों द्वारा, यज्ञ में सोमरस पान करनेवालों को सोमरस द्वारा और परमात्मा को स्तुतियों द्वारा तृप्त करो अर्थात् बढ़ाओ, जिससे तुम्हारे यज्ञ निर्विघ्न पूर्ण हों ॥२०॥
विषय
फिर भी उसकी कृपा दिखाते हैं ।
पदार्थ
(यज्ञेभिः) क्रियमाण यज्ञों के साथ (यज्ञवाहसम्) शुभकर्मों के निर्वाहक (सोमेभिः) यज्ञिय पदार्थों के साथ (सोमपातमम्) अतिशय पदार्थरक्षक (इन्द्रम्) भगवान् को मनुष्य (होत्राभिः) होमकर्म द्वारा (वावृधुः) बढ़ाते हैं, तब इतरजन (व्यानशुः) उस यज्ञ में सङ्गत होते हैं ॥२० ॥
भावार्थ
शुभकर्मों से ही उसको प्रसन्न करना चाहिये ॥२० ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
उस ( यज्ञवाहसं ) देवपूजा को स्वीकार करने वाले प्रभु को विद्वान् लोग ( यज्ञेभिः ) यज्ञों, उपासनाओं से ( वावृधुः ) बढ़ाते, उसकी महिमा का विस्तार करते और ( वि-आनशुः ) विविध प्रकार से प्राप्त होते हैं। उस ( सोम-पातमम् ) उत्पन्न हुए नाना सर्गों के परम पालक प्रभु को भक्तजन ( सोमैः ववृधुः ) उसके ऐश्वर्यों के वर्णनों से ही बढ़ाते हैं और उन द्वारा ही उस तक ( वि आनशुः ) पहुंचते हैं। इसी प्रकार वे ( होत्राभिः ) नाना वाणियों से ( इन्द्रं ववृधुः ) ऐश्वर्यवान् प्रभु की महिमा बढ़ाते और उन ( होत्राभिः ) गुरु शिष्यों द्वारा देने लेने योग्य वेद वाणियों से ही उस को ( व्यानशुः ) विविध प्रकार से प्राप्त करते, उसका ज्ञान करते, उसके गुणों में रमते हैं । इति चतुर्थो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञ-सोम-होत्रा
पदार्थ
[१] (यज्ञवाहसम्) = सब यज्ञों के प्राप्त करानेवाले उस प्रभु को (यज्ञेभिः) = यज्ञों से (वावृधुः) = बढ़ाते हैं और (व्यानशुः) = प्राप्त करते हैं। यज्ञों से दिव्य भाव का उत्तरोत्तर वर्धन होता है और (अन्ततः) = हम यज्ञों को प्राप्त करानेवाले प्रभु को प्राप्त करते हैं। [२] (सोमेभिः) = सोमों के रक्षण के द्वारा (सोमपातमम्) = अधिक से अधिक सोम का रक्षण करनेवाले उस प्रभु को हम अपने अन्दर बढ़ाते हैं और उसे प्राप्त करते हैं। [३] यज्ञों के द्वारा वासनाओं का विनाश होता है, यज्ञशील पुरुष वासनाओं से बचा रहकर सोम का रक्षण करता है। सोमरक्षण से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है। ये दीप्त ज्ञानाग्निवाले पुरुष (होत्राभिः) = ज्ञान की वाणियों से (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को अपने अन्दर बढ़ाते हैं और अन्ततः प्रभु को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञशील हों, यह यज्ञशीलता हमें वासनाओं से बचाये। सोमरक्षण द्वारा दीप्त ज्ञानाग्निवाले होकर हम स्तोतों द्वारा उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की महिमा का वर्धन करें और प्रभु को प्राप्त होनेवाले हों।
इंग्लिश (1)
Meaning
And may all participants in corporate action join in unison and adore and exalt Indra, greatest protector and promoter of the joy of soma and the united action, with homage, with offers of soma and oblations of havi into the sacred fire of joint and creative living for the common good.
मराठी (1)
भावार्थ
शुभ कर्मानीच परमेश्वराला प्रसन्न केले पाहिजे. ॥२०॥
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