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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 21
    ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    म॒हीर॑स्य॒ प्रणी॑तयः पू॒र्वीरु॒त प्रश॑स्तयः । विश्वा॒ वसू॑नि दा॒शुषे॒ व्या॑नशुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हीः । अ॒स्य॒ । प्रऽनी॑तयः । पू॒र्वीः । उ॒त । प्रऽश॑स्तयः । विश्वा॑ । वसू॑नि । दा॒शुषे॑ । वि । आ॒न॒शुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महीरस्य प्रणीतयः पूर्वीरुत प्रशस्तयः । विश्वा वसूनि दाशुषे व्यानशुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महीः । अस्य । प्रऽनीतयः । पूर्वीः । उत । प्रऽशस्तयः । विश्वा । वसूनि । दाशुषे । वि । आनशुः ॥ ८.१२.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 21
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अस्य) अस्य परमात्मनः (प्रणीतयः) निर्माणशक्त्यः (महीः) महत्यः (पूर्वीः) पुरातन्यः (उत) अथ (प्रशस्तयः) स्तुतयः वेदरूपेण तथैव ताश्च (दाशुषे) उपासकाय (विश्वा, वसूनि) समस्तानि रत्नानि धारयन्त्यः (व्यानशुः) व्याप्ताः ॥२१॥

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    विषयः

    तत्कृपां दर्शयति ।

    पदार्थः

    अस्य=इन्द्रस्य । प्रणीतयः=प्रणयनानि=संसारसम्बन्धिन्यो विरचनाः । महीः=महत्यो वर्त्तन्ते । उतापि च । अस्य प्रशस्तयः=प्रशंसा अपि । पूर्वीः=वह्वो वर्त्तन्ते । दाशुषे=पराननुग्रहीतुं स्वकीयं धनं दत्तवते जनाय । विश्वा=सर्वाणि । वसूनि=धनानि । व्यानशुः=प्राप्नुवन्ति ॥२१ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अस्य) इस परमात्मा की (प्रणीतयः) निर्माण शक्तियें (उत) और (प्रशस्तयः) वैदिक स्तुतियें (महीः) महान् और (पूर्वीः) अनादि हैं। ये दोनों (दाशुषे) उपासकों के लिये (विश्वा, वसूनि) सम्पूर्ण पदार्थों को उत्पन्न करती हुई (व्यानशुः) व्याप्त हो रही हैं ॥२१॥

    भावार्थ

    भाव यह है कि उस पूर्ण परमात्मा की निर्माणशक्ति=प्रत्येक कार्य्य की यथावत् रचनारूप शक्ति और वैदिक स्तुतियें अर्थात् वेदों में वर्णित परमात्मा की सुप्रबन्धादि शक्तियें महान् और अनादि हैं, जिनसे संसार में सब कार्य्य यथावत् हो रहे हैं ॥२१॥

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    विषय

    उसकी कृपा दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (अस्य) इस परमात्मा के (प्रणीतयः) प्रणयन अर्थात् सृष्टिसम्बन्धी विरचन (महीः) महान् और परमपूज्य हैं और (प्रशस्तयः) इसकी प्रशंसा भी (पूर्वीः) पूर्ण और बहुत हैं इसके (विश्वा) सम्पूर्ण (वसूनि) धन (दाशुषे) दानी पुरुष के लिये (व्यानशुः) प्राप्त होते हैं ॥२१ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! वह सब प्रकार से पूर्ण है । जो कोई उसकी आज्ञा के अनुसार चलता है, उसको वह सब देता है ॥२१ ॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अस्य ) इसके ( मही: ) बड़ी २ ( प्र-णीतयः ) व्यवस्थाएं और ( पूर्वी: ) पूर्व भी विद्यमान, सनातन, ( प्रशस्तयः ) उत्तम स्तुतियां या उत्तम ज्ञानानुशासन करने वाली वेद वाणियां ( विश्वा वसूनि दाशुषे ) समस्त ऐश्वर्यों के देने वाले उसी प्रभु के वर्णन के लिये ( वि आनशुः ) विविध या विशेष प्रकार से उस तक पहुंचती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रणीतयः-प्रशस्तयः

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार स्तुतिवाणियों से प्रभु का अपने में वर्धन करनेवाले व प्रभु को प्राप्त करनेवाले अनुभव करते हैं कि अस्य इस प्रभु की (प्रणीतयः) = प्रणीतियाँ, उत्कृष्ट मार्ग पर अपने सखा को ले चलने के क्रम, (मही:) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। (उत) = और (प्रशस्तयः) = प्रभु की प्रशस्तियाँ-स्तुतियाँ (पूर्वी:) = हमारा पालन व पूरण करनेवाली हैं। इन स्तुति-वाणियों से हमें जीवन के उत्कृष्ट मार्ग की प्रेरणा मिलती है। [२] इस प्रभु के स्तोता (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिये (विश्वा वसूनि) = सब वसु (व्यानशुः) = विशेष रूप से प्राप्त होते हैं। दाश्वान् पुरुष प्रभु के प्रति अपने को दे डालनेवाला यह उपासक, सब वसुओं को प्राप्त करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु प्रेरणा के अनुसार चलें। प्रभु का शंसन करें। प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले बनें। हम सब वसुओं [धनों] को प्राप्त करेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And may the eternal lights of this lord Indra’s splendour and guidance come to bless the generous yajaka with all wealths and honours of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! तो (परमेश्वर) सर्व प्रकारे पूर्ण आहे. जो त्याच्या आज्ञेनुसार चालतो त्याला तो सर्व देतो ॥२१॥

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