ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 22
इन्द्रं॑ वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे दे॒वासो॑ दधिरे पु॒रः । इन्द्रं॒ वाणी॑रनूषता॒ समोज॑से ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे । दे॒वासः॑ । द॒धि॒रे॒ । पु॒रः । इन्द्र॑म् । वाणीः॑ । अ॒नू॒ष॒त॒ । सम् । ओज॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं वृत्राय हन्तवे देवासो दधिरे पुरः । इन्द्रं वाणीरनूषता समोजसे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । वृत्राय । हन्तवे । देवासः । दधिरे । पुरः । इन्द्रम् । वाणीः । अनूषत । सम् । ओजसे ॥ ८.१२.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 22
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्रम्) परमात्मानम् (वृत्राय, हन्तवे) अज्ञाननाशाय (देवासः) देवा विद्वांसः (पुरः) अग्रे (दधिरे) धारयन्ति (इन्द्रम्) परमात्मानम् (वाणीः) वेदवाचः (ओजसे) ओजःप्राप्तये (समनूषत) संस्तुवन्ति ॥२२॥
विषयः
इन्द्र एव स्तवनीयः ।
पदार्थः
देवासः=देवा मनःसहितानीन्द्रियाणि विद्वांसो वा । वृत्राय=वृत्रमावरकमज्ञानादिकम् । हन्तवे=हन्तुम् । इन्द्रमेव । पुरोऽग्रे । दधिरे=दधति अज्ञाननिवृत्त्यै तमेव सर्वाणीन्द्रियाणि प्रार्थयन्ति । स्वस्य तत्सामर्थ्याभावात् । पुनः । वाणीः=विदुषां वाण्यो वाचोऽपि । इन्द्रमेव । अनूषत=स्तुवन्ति । किमर्थम् । सम्=समीचीनाय । ओजसे=बलाय बलं प्राप्तुमित्यर्थः ॥२२ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्रम्) परमात्मा को (वृत्राय, हन्तवे) अज्ञान-नाश करने के लिये (देवासः) विद्वान् (पूरः) सबसे प्रथम दधिरे ध्यान द्वारा धारण करते हैं (इन्द्रम्) परमात्मा को (वाणीः) वेदवाणियें (ओजसे) पराक्रम प्राप्त करने के लिये (समनूषत) सम्यक् स्तुति करती हैं ॥२२॥
भावार्थ
अज्ञाननाशक तथा ज्ञान के प्रकाशक परमात्मा को विद्वान् पुरुष ध्यानद्वारा धारण करते हैं अर्थात् विद्वान् पुरुष समाधिस्ध होकर परमात्मा के समीपस्थ हुए ज्ञान को सम्पादन करते हैं, जिससे मुक्त होकर सुख अनुभव करते हैं, अतएव जिज्ञासु जनों का कर्तव्य है कि वह आत्मिक बल सम्पादन करके ज्ञान की वृद्धि द्वारा परमात्मा के समीपस्थ होने के लिये यत्नवान् हों ॥२२॥
विषय
इन्द्र ही स्तवनीय है, यह लिखते हैं ।
पदार्थ
(देवासः) मनःसहित इन्द्रिय अथवा विद्वद्गण (वृत्राय) अज्ञानादि दुरितों के (हन्तवे) निवारण के लिये (इन्द्रम्) इन्द्र को ही (पुरः) आगे रखते हैं (वाणीः) पुनः विद्वानों की वाणी=वचन भी (सम्+ओजसे) सम्यक् प्रकार बलप्राप्ति के लिये । (इन्द्रम्+अनूषत) इन्द्र की ही स्तुति करते हैं । यह ईश्वर का माहात्म्य है कि सब कोई, क्या जड़ क्या चेतन, इसी के गुण प्रकट कर रहे हैं ॥२२ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! निखिल दुरितनिवारणार्थ उसी की शरण में आइये ॥२२ ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
( देवासः ) विद्वान् मनुष्य ( वृत्राय ) बढ़ते या अन्तःकरण को आवरण करने वाले अज्ञान को ( हन्तवे ) नाश करने के लिये ( इन्द्रं ) सूर्यवत् अन्धकार को विदारण करने वाले, दीप्तिमान् प्रभु रूप सूर्य को ( पुरः दधिरे ) सदा अपने समक्ष रखते हैं, उसका ध्यान वा धारण करते हैं। और (ओजसे) आत्मिक परम बल प्राप्त करने के लिये ( इन्द्रं ) उसी विघ्ननाशक, तेजस्वी प्रभु की ( वाणीः ) वाणियों द्वारा ( सम् अनूषत ) उसकी अच्छी प्रकार स्तुति करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु-स्मरण-ओजस्विता-वासना विनाश
पदार्थ
[१] (देवास:) = देववृत्ति के पुरुष (वृत्राय हन्तवे) = वृत्र के, ज्ञान की आवरणभूत वासना के विनाश के लिये (इन्द्रम्) = उस शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु को (पुरः दधिरे) = अपने आगे स्थापित करते हैं। सदा उस इन्द्र का स्मरण करते हैं, यह स्मरण ही उन्हें वासनाओं से आक्रान्त नहीं होने देता। [२] (इन्द्रम्) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु को ही (वाणीः) = इन की स्तुति-वाणियाँ (अनूषत) = स्तुत करती हैं। यह स्तवन (सं ओजसे) = समीचीन ओज के लिये होता है। स्तवन के द्वारा उत्पन्न ओज ही इन्हें वासनारूप शत्रुओं के विनाश के योग्य बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ-स्तवन के द्वारा प्रभु के ओज से ओजस्वी बनकर हम वासनारूप शत्रुओं का विनाश कर पाते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Saints and sages honour and adore Indra as their first and foremost leader and guide for the destruction of darkness and evil, and their songs of homage and prayer too adore and glorify Indra for the attainment of light and splendour.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! संपूर्ण दुरित निवारण करण्यासाठी त्यालाच शरण जावे. ॥२२॥
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