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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 25
    ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    यदि॑न्द्र पृत॒नाज्ये॑ दे॒वास्त्वा॑ दधि॒रे पु॒रः । आदित्ते॑ हर्य॒ता हरी॑ ववक्षतुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॒न्द्र॒ । पृ॒त॒नाज्ये॑ । दे॒वाः । त्वा॒ । द॒धि॒रे । पु॒रः । आत् । इत् । ते॒ । ह॒र्य॒ता । हरी॒ इति॑ । व॒व॒क्ष॒तुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्र पृतनाज्ये देवास्त्वा दधिरे पुरः । आदित्ते हर्यता हरी ववक्षतुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । इन्द्र । पृतनाज्ये । देवाः । त्वा । दधिरे । पुरः । आत् । इत् । ते । हर्यता । हरी इति । ववक्षतुः ॥ ८.१२.२५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 25
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यत्) यस्मात् (देवाः) विद्वांसः (त्वा) त्वाम् (पृतनाज्ये) संग्रामे (पुरः) प्रथमं (दधिरे) धारयन्ति (आत्, इत्) अतएव (हर्यता) रमणीये (ते, हरी) तव आत्मरक्षणप्रहरणरूपे शक्ती (ववक्षतुः) धत्तः ॥२५॥

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    विषयः

    तस्य महत्त्वं दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! यद्=यदा । देवाः=इन्द्रियाणि विद्वांसो वा । पृतनाज्ये=सांसारिकसंग्रामे । त्वा=त्वाम् । पुरोऽग्रे । दधिरे= धारयन्ति स्तोतुं ध्यातुं वा । आदित्=तदन्तरमेव । हर्यता=कान्तौ=प्रियौ । ते=तव सम्बन्धिनौ । हरी=उभयात्मकौ संसारौ त्वाम् । ववक्षतुः=वहतः प्रकाशयतः । इत्यध्यात्मवर्णनम् ॥२५ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यत्) जो (देवाः) शूरवीर विद्वान् (त्वा) आपको (पृतनाज्ये) संग्राम में (पुरः) प्रथम ही (दधिरे) हृदय में धारण करते हैं (आत्, इत्) इसी से (हर्यता) रमणीय (ते, हरी) आपकी आत्मरक्षण और प्रहरणरूप दो शक्तियें (ववक्षतुः) उनको धारण करती हैं ॥२५॥

    भावार्थ

    हे परमात्मन् ! जो शूरवीर आपको संग्रामसमय हृदय में धारण करते हैं अर्थात् युद्ध करते हुए आपसे विजय की याचना करते हैं, वही संग्रामभूमि में विजय को प्राप्त होते हैं, अतएव विजय की कामनावाले शूरवीरों को सदैव परमात्मा से विजय की याचना करनी चाहिये, क्योंकि उनकी कृपा विना विजय प्राप्त नहीं हो सकती ॥२५॥

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    विषय

    उसका महत्त्व दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र परमात्मन् ! (यद्) जब (देवाः) इन्द्रियगण या विद्वान् (पृतनाज्ये) सांसारिक संग्राम में विजयप्राप्ति के लिये (त्वा) तुझको (पुरः) अपने सामने (दधिरे) रखते हैं (आद्+इत्) तत्पश्चात् ही (ते) तेरे (हर्यता) प्रिय (हरी) स्थावर और जङ्गम संसार (ववक्षतुः) तुझे प्रकाशित करने लगते हैं । अर्थात् जब विद्वान् परमात्मा के ध्यान में निमग्न होते हैं, तब ही यह सृष्टि तुझे उनके समीप प्रकाशित करती है अर्थात् इस सृष्टि में विद्वान् तुझे देखने लगते हैं ॥२५ ॥

    भावार्थ

    इस संसारसागर से वे ही पार उतरते हैं, जो उसकी शरण में पहुँचते हैं, भक्तगण उसको इस प्रकृति में ही देखते हैं ॥२५ ॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( पृतनाज्ये ) सेनाओं के भागने के स्थान, या अवसर तथा सेनाओं से विजय करने योग्य संग्राम में जिस प्रकार ( देवाः ) विजिगीषु लोग ( इन्द्रं पुरो दधिरे ) तेजस्वी, राजा या सेनापति को आगे रखते हैं ( हर्यता हरी ववक्षतुः ) वेगवान् सुन्दर दो घोड़े उसको आगे लेजाते हैं, उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! स्वयंप्रकाश प्रभो ! ( यत् त्वा ) जिस तुझ को ( देवाः ) विद्वान् एवं नाना कामना करने वाले मनुष्य ( पृतनाज्ये ) मनुष्यों से प्राप्य ऐश्वर्य या उद्देश्य के लिये ( पुरः दधिरे ) अपने समक्ष साक्षी एवं परम उद्देश्यवत् स्थापित करते हैं ( आत् इत् ) अनन्तर उसी ( ते ) तुझे ( हर्यता हरी ) तेरी कामना करने वाले ज्ञानी अज्ञानी वा स्त्री पुरुष वा ज्ञानी, कर्मी, मनुष्य ( ववक्षतुः ) हृदय में धारण करते हैं । इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    संग्राम विजय

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (यत्) = जब (पृतनाज्ये) = संग्राम में (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (त्वा) = आपको (पुरः दधिरे) = आगे स्थापित करते हैं। (आत् इत्) = तब शीघ्र ही (हर्यता) = ये गतिशील (हरी) = इन्द्रियाश्व (ते ववक्षतुः) = हमें आपके समीप प्राप्त कराते हैं। [२] संसार में वासनाओं के संग्राम में विजय प्राप्ति प्रभु कृपा से ही होती है। प्रभु ही वस्तुतः हमारे वासनारूप शत्रुओं का विनाश करते हैं। इस वासना विनाश से निर्मल हुई हुई इन्द्रियाँ हमें प्रभु के समीप प्राप्त कराती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-देवता प्रभु के उपासन से वासना संग्राम में विजयी बनते हैं। निर्मल इन्द्रियाश्व हमें प्रभु के समीप प्राप्त कराते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Since the learned sages have accepted and followed you as front leader for the attainment of victory in their struggles of life, we pray, may your radiant currents of divine energy reveal your presence and bring us the vision of divinity for our illumination.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या संसार सागरातून तेच पार पडतात जे त्याला (परमेश्वराला) शरण जातात. भक्तगण त्याला या प्रकृतीतच पाहतात. ॥२५॥

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