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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 26
    ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    य॒दा वृ॒त्रं न॑दी॒वृतं॒ शव॑सा वज्रि॒न्नव॑धीः । आदित्ते॑ हर्य॒ता हरी॑ ववक्षतुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒दा । वृ॒त्रम् । न॒दी॒ऽवृत॑म् । शव॑सा । व॒ज्रि॒न् । अव॑धीः । आत् । इत् । ते॒ । ह॒र्य॒ता । हरी॒ इति॑ । व॒व॒क्ष॒तुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदा वृत्रं नदीवृतं शवसा वज्रिन्नवधीः । आदित्ते हर्यता हरी ववक्षतुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदा । वृत्रम् । नदीऽवृतम् । शवसा । वज्रिन् । अवधीः । आत् । इत् । ते । हर्यता । हरी इति । ववक्षतुः ॥ ८.१२.२६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 26
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (वज्रिन्) हे वज्रशक्तिमन् ! (यदा) यस्मिन् काले (नदीवृतम्) जलपूर्णं (वृत्रम्) मेघम् (शवसा) स्वबलेन (अवधीः) निहंसि वर्षणाय (आदित्) अनन्तरम् (ते) तव (हर्यता) सुन्दर्यौ (हरी) ऊष्मशमनसस्योत्पादनशक्ती (ववक्षतुः) वहतो लोकम् ॥२६॥

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    विषयः

    तस्य गुणाः कीर्त्यन्ते ।

    पदार्थः

    हे वज्रिन्=हे दण्डधारिन्=न्यायकारिन् परमदेव ! यदा=यस्मिन् काले । नदीवृतम्=(नदीशब्देन जलानि लक्ष्यन्ते) जलान्यावृत्य तिष्ठन्तम् । वृत्रम्=विघ्नं जलशोषकमनिष्टम् । शवसा= स्वनियमबलेन । अवधीः=निवारयसि । आदित्=तदनन्तरमेव । ते हर्य्यता=प्रियौ । हरी=परस्परहरणशीलौ स्थावरजङ्गमौ संसारौ त्वाम् । ववक्षतुः=वहतः=प्रकाशयतः । तदा । प्रसन्नजनाः प्रकृतौ त्वां प्रत्यक्षवत् पश्यन्तीत्यर्थः ॥२६ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वज्रिन्) हे वज्रशक्तिवाले ! (यदा) जब (नदीवृतम्) जलपूर्ण (वृत्रम्) मेघ को आप (शवसा) स्वपराक्रम से (अवधीः) भेदन करके वर्षण करते हैं (आदित्) तभी (ते) आपकी (हर्यता) सुन्दर (हरी) ऊष्मनाशक और सस्योत्पादक ये दो शक्तियें (ववक्षतुः) लोक को धारण करती हैं ॥२६॥

    भावार्थ

    हे महान् शक्तिसम्पन्न परमेश्वर ! आपकी शक्ति से ही वर्षा होती और वर्षा से अन्न उत्पन्न होकर प्रजा का पालन-पोषण होता है अर्थात् वर्षा का करना तथा सस्योत्पादन=कृषी का उत्पन्न करना, ये दो शक्तियें, जो लोक को धारण करती हैं, आप ही के अधीन हैं ॥२६॥

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    विषय

    उसके गुण कीर्त्तन किए जाते हैं ।

    पदार्थ

    (वज्रिन्) हे दण्डधारिन् न्यायकारिन् परमात्मन् ! (यदा) जब (नदीवृतम्) जलप्रतिबाधक (वृत्रम्) अनिष्ट को तू (शवसा) स्वनियमरूप बल से (अवधीः) निवारित करता है, (आद्+इत्) उसके पश्चात् ही (ते) तेरे (हर्य्यता) सर्व कमनीय (हरी) परस्पर हरणशील स्थावर और जङ्गमरूप द्विविध संसार तुझको (ववक्षतुः) प्रकाशित करते हैं अर्थात् वर्षाबाधक अनिष्ट निवारित होने पर सकलजन प्रफुल्लित होकर तेरी विभूति तेरी प्रकृति में देखते हैं ॥२६ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों का जब विघ्न विनष्ट होता है, तब ही वह ईश्वर की ओर जाता है, तब ही वह प्रकृतिदेवी प्रसन्न होकर उसकी छवि प्रकट करती है ॥२६ ॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य वा विद्युत् ( नदीवृतं वृत्रं ) गरजती मेघ मालाओं में विद्यमान जल को ( शवसा अवधीत् ) बलपूर्वक आघात करता और उस विद्युत् को हरणशील कान्तियुक्त धन ऋण दोनों प्रकार की धाराएं दोनों कान्तियुक्त पदार्थ धारण करती हैं। उसी प्रकार ( यदा ) जब ( नदीवृतं ) नदीजलवत् निरन्तर गतिशील आत्मा की धारा में विद्यमान ( वृत्रम् ) आवरणकारी अज्ञान को हे ( वज्रिन् ) ज्ञानवज्र के स्वामिन् ! हे शक्तिशालिन् ! तू ( शवसा ) अपने ज्ञान-प्रकाश से ( अवधीः ) नाश करता है ( आत् इत् ) अनन्तर ही ( हर्यता ) तुझे चाहने वाले ( हरी ) स्त्री पुरुष वा मन और आत्मा ( ते ) तेरे विषयक ज्ञान को ( ववक्षतुः ) धारण करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'नदीवृत्' वृत्र का वर्त्य

    पदार्थ

    [१] हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो ! (यदा) = जब (नदीवृतम्) = इस ज्ञानजल के प्रवाहवाली सरस्वती नदी को आवृत कर लेनेवाले इस (वृत्रम्) = काम वासना रूप वृत्र को (शवसा) = शक्ति के द्वारा (अवधी:) = आप विनष्ट करते हैं। (आत् इत्) = तब ही शीघ्र (हर्यता हरी) = ये गतिशील इन्द्रियाश्व (ते ववक्षतुः) = आपके समीप हमें प्राप्त कराते हैं । [२] प्रभु की प्राप्ति में अज्ञान का आवरण ही विघातक बना हुआ है। इस आवरण के हटते ही हम प्रभु का दर्शन कर पाते हैं। यह आवरण ही 'वृत्र' है, वासना है। प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर हम इस वासना को विनष्ट करें। इसके नष्ट होते ही सरस्वती नदी का ज्ञानजल हमारे जीवनों को निर्मल कर डालेगा। उस समय हमारे ये इन्द्रियाश्व सन्मार्ग से आगे बढ़ते हुए हमें प्रभु के समीप प्राप्त करायेंगे। उपासना हमें शक्ति सम्पन्न बनायेगी। हम वासना का विनाश करके ज्ञान

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की को अपने में प्रवाहित कर पायेंगे। उस समय हमारे इन्द्रियाश्व उस मार्ग से चलेंगे, जिससे कि हम प्रभु के समीप और समीप पहुँचते जायेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of the thunderbolt, as with your divine might you destroy the negativities of darkness and drought which obstruct the flow of the waters of life, we pray may your divine currents of light and will reveal your power and presence to us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाचे जेव्हा विघ्न नष्ट होते तेव्हाच तो ईश्वराकडे जातो व तेव्हाच ही प्रकृतीदेवी प्रसन्न होऊन त्याची छबी (ईश्वराची) प्रकट करते ॥२६॥

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