ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 33
ऋषिः - पर्वतः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराडार्च्युष्निक्
स्वरः - ऋषभः
सु॒वीर्यं॒ स्वश्व्यं॑ सु॒गव्य॑मिन्द्र दद्धि नः । होते॑व पू॒र्वचि॑त्तये॒ प्राध्व॒रे ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽवीर्य॑म् । सु॒ऽअश्व्य॑म् । सु॒ऽगव्य॑म् । इ॒न्द्र॒ । द॒द्धि॒ । नः॒ । होता॑ऽइव । पू॒र्वऽचि॑त्तये । प्र । अ॒ध्व॒रे ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुवीर्यं स्वश्व्यं सुगव्यमिन्द्र दद्धि नः । होतेव पूर्वचित्तये प्राध्वरे ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽवीर्यम् । सुऽअश्व्यम् । सुऽगव्यम् । इन्द्र । दद्धि । नः । होताऽइव । पूर्वऽचित्तये । प्र । अध्वरे ॥ ८.१२.३३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 33
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 8
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (नः) अस्मभ्यम् (सुवीर्यम्) सुवीर्यवत् (स्वश्व्यम्) स्वश्ववत् (सुगव्यम्) शोभनगोवत् (दद्धि) धनं देहि (प्राध्वरे) महायज्ञे (होतेव) यज्ञकर्तेव (पूर्वचित्तये) पूर्वज्ञानाय त्वमसि ॥३३॥ इति द्वादशं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! पूर्वचित्तये=पूर्णविज्ञानाय । यद्वा । सर्वेभ्यः पूर्वमेव प्रज्ञापनाय । होता इव । यद्यपि यज्ञं नाहं जानामि तथापि ऋत्विगिव । अध्वरे=यागे । त्वाम् । प्र=प्रार्थये । त्वं खलु । नोऽस्मभ्यम् । सुवीर्य्यम्=सुवीर्य्योपेतम् । स्वश्व्यम् । धनं दद्धि=देहि ॥३३ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (नः) आप हमारे लिये (सुवीर्यम्) सुन्दर वीर्यवाले (स्वश्व्यम्) सुन्दर अश्ववाले (सुगव्यम्) सुन्दर गोवाले धन को (दद्धि) दें (प्राध्वरे) संसाररूप महायज्ञ में (होतेव) यज्ञकर्त्ता के समान (पूर्वचित्तये) पूर्वज्ञानप्राप्त करने के लिये आप हैं ॥३३॥
भावार्थ
हे प्रभो ! यज्ञकर्त्ता के समान ज्ञान प्राप्त करानेवाले गुरु तथा आचार्य्य आप ही हैं। कृपा करके हमको ज्ञान की प्राप्ति कराएँ, जिससे हम लोग नित्यप्रति यज्ञों द्वारा आपकी उपासना में प्रवृत्त रहें। हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न भगवन् ! हमें गौ आदि उत्तमोत्तम धनों को दीजिये, जिससे हम ऐश्वर्य्यसम्पन्न होकर यज्ञ करते हुए स्वाधीनता से जीवन व्यतीत करें ॥३३ यह बारहवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
फिर भी उसी विषय को कहते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! (पूर्वचित्तये) पूर्ण विज्ञानप्राप्ति के लिये अथवा सबसे पहले ही जनाने के लिये (होता+इव) ऋत्विक् के समान (अध्वरे) यज्ञ में तेरी (प्र) प्रार्थना करता हूँ । तू (नः) हम लोगों को (सुवीर्य्यम्) सुवीर्य्योपेत (स्वश्व्यम्) अच्छे-२ घोड़ों से युक्त (सुगव्यम्) मनोहर गवादि पशु समेत धन को (दद्धि) दे ॥३३ ॥
भावार्थ
उसी की कृपा से अश्वादिक पशु भी प्राप्त होते हैं ॥३३ ॥
टिप्पणी
यह अष्टम मण्डल का बारहवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे तेजोमय ! हे ऐश्वर्यप्रद ! जिस प्रकार ( अध्वरे पूर्वचित्तये होता इव ) यज्ञ में पूर्ण ज्ञानवान् पुरुष के उपकारार्थ दानशील यजमान, उत्तम अश्व गौ आदियुक्त धन प्रदान करता है उसी प्रकार प्रभो ! तू ( नः ) हमें भी ( पूर्व-चित्तये ) पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये और पूर्व विद्यमान पदार्थों का ज्ञान करने के लिये वा हमारे पूर्व विद्यमान चेतनावान् आत्मा को ( सुवीर्यं ) उत्तम वीर्ययुक्त, ( सु-अश्व्यं ) उत्तम आशुगामी मन से युक्त, ( सुगव्यम् ) उत्तम इन्द्रियगण ( दद्धि ) प्रदान करता है । इति षष्ठो वर्गः ॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः !!
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'सुवीर्य स्वश्व्य-सुगव्य'
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (नः) = हमारे लिये (सुवीर्यम्) = उत्तम वीर्य को, (स्वश्व्यम्) = उत्तम कर्मेन्द्रिय समूह को तथा (सुगव्यम्) = उत्तम ज्ञानेन्द्रिय समूह को (दद्धि) = दीजिये । गत मन्त्र के अनुसार सदा प्रभु-स्तवनपूर्वक उत्तम कर्मों को करने से हमें 'सुवीर्य स्वश्व्य व सुगव्य' की प्राप्ति होती है। [२] हे प्रभो ! आप (होता इव) = एक होता के समान (प्राध्वरे) = प्रकृष्ट हिंसारहित कर्मों में हमारी गति के होने पर (पूर्व चित्तये) = हमारे लिये पालक व पूरक चित्ति के लिये हों। हमें आप उस ज्ञान को दें, जो हमारा पालन व पूरण करनेवाला हो।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के अनुग्रह से यज्ञादि उत्तम कर्मों में चलते हुए सदा पालक व पूरक ज्ञान को प्राप्त करें। प्रभु हमारे लिये 'सुवीर्य, स्वश्व्य व सुगव्य' को दें। अपने जीवन को अध्वरों में पवित्र करनेवाला यह व्यक्ति अपने पवित्र जीवन से औरों को भी पवित्र करता है सो 'नारद' (नारं नरसमूहं दायति) कहलाता है। यह 'काण्व' अत्यन्त मेधावी नारद इन्द्र का स्तवन करता हुआ कहता है कि-
इंग्लिश (1)
Meaning
Then O lord omnipotent and self-refulgent, like a generous host of cosmic yajna, bring us the wealth of prosperity and progress and a brave and honourable progeny as the first gift and attainment of the yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
त्याच्या कृपेने अश्व इत्यादी पशूही प्राप्त होतात. ॥३३॥
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