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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 5
    ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इ॒मं जु॑षस्व गिर्वणः समु॒द्र इ॑व पिन्वते । इन्द्र॒ विश्वा॑भिरू॒तिभि॑र्व॒वक्षि॑थ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । जु॒ष॒स्व॒ । गि॒र्व॒णः॒ । स॒मु॒द्रःऽइ॑व । पि॒न्व॒ते॒ । इन्द्र॑ । विश्वा॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । व॒वक्षि॑थ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं जुषस्व गिर्वणः समुद्र इव पिन्वते । इन्द्र विश्वाभिरूतिभिर्ववक्षिथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । जुषस्व । गिर्वणः । समुद्रःऽइव । पिन्वते । इन्द्र । विश्वाभिः । ऊतिऽभिः । ववक्षिथ ॥ ८.१२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (गिर्वणः) गीर्भिः संभजनीयस्त्वम् (इमम्) इमं स्तोत्रम् (जुषस्व) सेवस्व (समुद्र इव, पिन्वते) यत् स्तोत्रमन्तरिक्षमिव वर्धते (विश्वाभिः, ऊतिभिः) सर्वाभी रक्षाभिः (ववक्षिथ) लोकान् वहसि ॥५॥

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    विषयः

    स्तोमस्वीकाराय प्रार्थना ।

    पदार्थः

    हे गिर्वणः=गीर्भिर्मनुष्यवचनैः । वण । वननीय स्तवनीय स्तोत्रप्रिय । इन्द्र=परमदेव । इमम्=मम स्तोमम् । जुषस्व=सेवस्व गृहाण । यः स्तोमः । त्वयि प्रयुक्तः सन् समुद्र इव पिन्वते=वर्धते । तवानन्तं महिमानं प्राप्य सोऽपि तद्वद् भवति । हे इन्द्र ! येन स्तोमेन स्तूयमानः सन् त्वम् । अत्र पूर्वस्मान् मन्त्राद् येनेति पदमध्याह्रियते । विश्वाभिः=सर्वाभिः । ऊतिभिः=रक्षाभिः । ववक्षिथ=जीवान् प्रापयसि सुखमित्यर्थः ॥५ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (गिर्वणः) वाणियों द्वारा भजनीय आप (इमम्) इस स्तोत्र को (जुषस्व) सेवन करें, जो स्तोत्र (समुद्र इव, पिन्वते) अन्तरिक्ष के समान बढ़ रहा है, जिससे (विश्वाभिः) सम्पूर्ण (ऊतिभिः) रक्षाओं से (ववक्षिथ) लोकों का धारण करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    हे सर्वरक्षक परमात्मन् ! आप सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों के रक्षक तथा पालक हैं, हमारे इस स्तुतिप्रद स्तोत्र को श्रवण करते हुए हमारी सब ओर से रक्षा करें। हे पवित्र वाणियों से भजनीय परमेश्वर ! लोक-लोकान्तरों के धारण करनेवाले तथा उनको नियम में चलानेवाले आप ही हैं, कृपा करके हमारी रक्षा करते हुए हमें भी बल प्रदान करें, कि हम लोग वैदिक अनुष्ठानरूप नियम से कभी च्युत न हों ॥५॥

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    विषय

    स्तुतिस्वीकार के लिये प्रार्थना ।

    पदार्थ

    (गिर्वणः) हे वाणियों से स्तवनीय हे स्तुतिप्रिय (इन्द्र) हे परमदेव ! (इमम्) इस मेरे स्तोत्र को (जुषस्व) ग्रहण कर । जो मेरा स्तोत्र मेरे उद्देश से प्रयुक्त होने पर (समुद्रः+इव) समुद्र के समान (पिन्वते) बढ़ता है । तेरे अनन्त महिमा को प्राप्त करके वह भी तत्समान होता है । इस कारण समुद्र की वृद्धि से उपमा दी गई है । हे इन्द्र ! (येन) जिस मेरे स्तोत्र से स्तूयमान होने पर तू भी (विश्वाभिः) समस्त (ऊतिभिः) रक्षाओं से (ववक्षिथ) इस संसार में विविध सुख पहुँचाता है ॥५ ॥

    भावार्थ

    प्रेम और सद्भाव से विरचित स्तोत्र वा प्रार्थना को भगवान् अवश्य सुनता है । ऐसे-२ मनुष्यों के शुभकर्म से जगत् का स्वतः कल्याण होता है ॥५ ॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शक्तिशालिन् ! इस संसार के द्रष्टः ! तू ( विश्वाभिः ) समस्त ( ऊतिभिः ) रक्षा और शक्तियों से ( ववक्षिथ ) इस संसार को धारण कर रहा है, तू सबसे महान् है। हे ( गिर्वणः ) वाणियों द्वारा श्रवण भजन करने योग्य ! हे समस्त वेद वाणियों को देनेहारे ! तू ( समुद्रः इव ) महान् सागर के समान ( समुद्रः ) समान रूप से सबको आनन्द हर्ष का देने वाला, परमानन्द का सागर ( पिन्वते ) होकर बढ़ता है, तू ( इमं ) इस स्तुति को भी ( जुषस्व ) प्रेमपूर्वक स्वीकार कर। इति प्रथमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    हृदय में स्तुति तरंगों का उत्थान

    पदार्थ

    [१] हे (गिर्वणः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा सम्भजनीय प्रभो ! (इमं जुषस्व) = इस हमारे से की जानेवाली स्तुति का सेवन करिये, यह आपके लिये प्रिय हो। यह स्तुति (समुद्रः इव) = समुद्र की तरह (पिन्वते) = वृद्धि को प्राप्त होती है । चन्द्रोदय से जैसे समुद्र में ज्वार आती है, उसी प्रकार आपका चिन्तन मेरे में स्तुति तरंगों के उत्थान का कारण बनता है। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (विश्वाभिः ऊतिभिः) = सब रक्षणों के साथ आप (ववक्षिथ) = [वहसि] हमारे लिये सब ऐश्वर्यों को प्राप्त कराते हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का चिन्तन हमारे हृदयों में प्रभु-स्तवन की वृत्ति को अधिकाधिक बढ़ाये। प्रभु हमें रक्षणों व ऐश्वर्यों को प्राप्त करायें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord adorable and worshipped, accept and cherish this song of homage and celebration which rolls and rises and swells you too like the sea, and you too, O lord omnipotent, manifest in glory higher and higher with all modes of protection and promotion.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रेम व सद्भावनेने रचलेले स्तोत्र किंवा प्रार्थना परमेश्वर अवश्य ऐकतो. अशा माणसांच्या शुभ कर्मांनी जगाचे कल्याण होते. ॥५॥

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