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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 20
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    भ॒द्रं मन॑: कृणुष्व वृत्र॒तूर्ये॒ येना॑ स॒मत्सु॑ सा॒सह॑: । अव॑ स्थि॒रा त॑नुहि॒ भूरि॒ शर्ध॑तां व॒नेमा॑ ते अ॒भिष्टि॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒द्रम् । मनः॑ । कृ॒णु॒ष्व॒ । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑ । येन॑ । स॒मत्ऽसु॑ । स॒सहः॑ । अव॑ । स्थि॒रा । त॒नु॒हि॒ । भूरि॑ । शर्ध॑ताम् । व॒नेम॑ । ते॒ । अ॒भिष्टि॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भद्रं मन: कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासह: । अव स्थिरा तनुहि भूरि शर्धतां वनेमा ते अभिष्टिभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भद्रम् । मनः । कृणुष्व । वृत्रऽतूर्ये । येन । समत्ऽसु । ससहः । अव । स्थिरा । तनुहि । भूरि । शर्धताम् । वनेम । ते । अभिष्टिऽभिः ॥ ८.१९.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 20
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ क्षात्रबलवर्धकयज्ञपूर्त्यर्थं परमात्मा प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! (वृत्रतूर्ये) शत्रुवारणसंग्रामे (मनः, भद्रम्, कृणुष्व) अस्माकं मनः कल्याणं कुरु (येन) येन मनसा (समत्सु) संग्रामेषु (सासहः) शत्रूनभिभावयसि (शर्धताम्) शत्रूणाम् (भूरि, स्थिरा) बहूनि दृढानि (अवतनुहि) अपसारय (अभिष्टिभिः) यागैः (ते, वनेम) त्वाम्भजेम यतः ॥२०॥

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    विषयः

    अनया प्रार्थ्यते ।

    पदार्थः

    हे सर्वगत देव ! वृत्रतूर्य्ये=महासंग्रामे । अस्माकं मनः । भद्रम्=कल्याणं मङ्गलविधायकमेव । कृणुष्व=कुरु । हे भगवन् ! येन मनसा । समत्सु=संमाद्यन्ति भूतानि येषु तेषु समत्सु=संसारेषु । सासहः=सर्वान् विघ्नान् अभिभवसि=शमयसि भगवन् । शर्धताम्=महादुष्टानां जगत्कण्टकानाम् । स्थिरा=स्थिराण्यपि । भूरि=भूरीण्यपि पुराणि । अवतनुहि=अधस्तात् भूमिसात् कुरु । येन वयम् । ते अभिष्टिभिः=अभीष्टैरभिलषितैर्मनोरथैः । वनेम=संगच्छेमहि ॥२० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब क्षात्रबलवर्धक यज्ञ की पूर्ति के लिये परमात्मा से प्रार्थना करना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! आप (वृत्रतूर्ये) शत्रुनिवारण-संग्राम में (मनः, भद्रम्, कृणुष्व) हमारे मन को कल्याणमय करें (येन) जिस मन से (समत्सु) संग्रामों में (सासहः) शत्रुओं का अभिभव कराते हैं (शर्धताम्) और शत्रुओं के (भूरि, स्थिरा) दृढ़ समुदाय को (अवतनुहि) पृष्ठभाग की ओर अपसरण करें, जिससे (अभिष्टिभिः) महान् यज्ञों द्वारा (ते, वनेम) आपका सेवन करने में समर्थ हों ॥२०॥

    भावार्थ

    हे बलप्रद परमात्मन् ! क्षात्रबलवर्धक संग्राम में हमारे आत्मा को दृढ़ तथा कल्याणमय करें, जिससे शत्रुसमुदाय पीठ दिखावे। हमारे क्षात्रबलप्रधान यज्ञ सफल हों, जिनमें प्रजाजनों का हितचिन्तन करते हुए उनको सुखपूर्ण करने में कृतकार्य्य हों और सब याज्ञिक आपकी उपासना में निरन्तर तत्पर रहें ॥२०॥

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    विषय

    इससे प्रार्थना करते हैं ।

    पदार्थ

    हे सर्वगत देव ! (वृत्रतूर्य्ये) महासंग्राम में भी (मनः+भद्रम्) हमारे मन को कल्याणयुक्त (कृणुष्व) करो, (येन) जिस मन से आप (समत्सु) जगत् में (सासहः) सर्वविघ्नों को शान्त करते हैं । हे ईश ! (शर्धताम्) महादुष्ट और जगत् के कण्टकजनों के (स्थिरा) बहुत दृढ़ भी (भूरि) और बहुत भी नगर हों, तो भी उन्हें (अव+तनुहि) भूमि में मिला देवें, जिससे हम उपासक (ते) आपके दिये हुए (अभिष्टिभिः) अभिलषित मनोरथों से (वनेम) संयुक्त होवें ॥२० ॥

    भावार्थ

    महा महासंग्राम में बुद्धिमान् अपने मन को विकृत न करें और न सत्य से ही कदापि दूर चले जाएँ ॥२० ॥

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    विषय

    नायक। वा प्रभु से प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे नायक ! प्रभो ! तू ( वृत्रतूर्ये ) दुष्टों के नाश करने वाले संग्राम में ( येन ) जिस ज्ञान और मनोबल से ( समत्सु ) संग्रामों में ( सासहः ) शत्रुओं को पराजित करता है, तू उसी ( मनः ) मन और ज्ञान को ( भद्रं ) हमें सुखदायक कर। और ( शर्धतां ) बल वाले हिंसक शत्रुओं के ( स्थिरा ) दृढ़ सैन्यों को भी ( अव तनुहि ) नीचे कर, नाश कर। जिससे हम ( अभिष्टिभिः ) अभिलषित सुखों से ( ते वनेम ) तेरी सेवा करें। तुझ से नाना ऐश्वर्य प्राप्त करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    संग्राम में उत्तम मन के द्वारा विजय

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! आप (वृत्रतूर्ये) = संग्राम में, काम-क्रोध-लोभ आदि के साथ चलनेवाले (अध्यात्म) = संग्राम में हमारे (मनः) = मन को (भद्रं कृणुष्व) = कल्याणयुक्त करिये। हमारा मन ऐसा बने (येन) = जिससे (समत्सु) = संग्रामों में (सासह:) = हम इन शत्रुओं का पराभव कर पायें। [२] (शर्धताम्) = हमारा प्रसहन [पराभव] करते हुए इन काम-क्रोध आदि के (भूरि) = खूब ही स्थिरा दृढ़ भी धनुषों को (अवतनुहि) = अवनत करिये, ज्यारहित करिये, आक्रमण के अयोग्य कर दीजिये । (ते) = आपके (अभिष्टिभिः) = अभ्येषण [प्राप्ति] साधन स्तोत्रों से हम (वनेम) = उत्कृष्ट धनों का सम्भजन करें।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रभु अध्यात्म-संग्रामों में हमारे मनों को इस प्रकार भद्र बनायें, कि हम इन संग्रामों में शत्रुओं को जीत ही पायें। शत्रुओं के धनुषों को आप ढीला करिये। हम प्रभु प्राप्ति के साधनभूत स्तोत्रों से उत्तम धनों का सम्भजन करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, leading light of life, turn the mind by which you challenge the adversary in battles and win for us to gracious goodness in the victory over the forces of darkness. Reduce the many strongholds of the violent adversaries to nullity so that by your kindness and favours we may win what we desire in peace.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    महायुद्धात बुद्धिमानानी आपल्या मनाला विकृत करू नये व सत्यापासून दूर जाता कामा नये. ॥२०॥

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