ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 23
यदी॑ घृ॒तेभि॒राहु॑तो॒ वाशी॑म॒ग्निर्भर॑त॒ उच्चाव॑ च । असु॑र इव नि॒र्णिज॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । घृ॒तेभिः॑ । आऽहु॑तः । वाशी॑म् । अ॒ग्निः । भर॑ते । उत् । च॒ । अव॑ । च॒ । असु॑रःऽइव । निः॒ऽनिज॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदी घृतेभिराहुतो वाशीमग्निर्भरत उच्चाव च । असुर इव निर्णिजम् ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । घृतेभिः । आऽहुतः । वाशीम् । अग्निः । भरते । उत् । च । अव । च । असुरःऽइव । निःऽनिजम् ॥ ८.१९.२३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 23
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ यज्ञसाधनेन उत्तमप्रजानामुत्पत्तिः कथ्यते।
पदार्थः
(यदि) यदा (अग्निः) परमात्मा (घृतेभिः, आहुतः) आज्यैराहुतिभिः सेवितः स्यात् तदा (उत्, च) ऊर्ध्वं च (अव, च) अधश्च (वाशीम्, भरते) सुबुद्धिमुत्पाद्य वाणीं पुष्णते (असुरः) प्राणदः सूर्यः (निर्णिजम्, इव) यथा सप्तविधरूपाणि तथा ॥२३॥
विषयः
पुनस्तदनुवर्त्तते ।
पदार्थः
घृतेभिः=घृतैर्घृतादिद्रव्यैः । आहुतस्तर्पितः । अग्निः । यदि=यदास्मिन् काले । वाशीम्=वाशनशीलां शब्दकारिणीं ज्वालाम् । उच्चावच=उर्ध्वमधस्ताच्च । भरते=संपादयति । तदा । असुरः= असून्=प्राणान् राति ददातीत्यसुरः सूर्य्यः । सूर्य्य इव । निर्णिजम्=आत्मरूपं प्रकाशयतीति शेषः ॥२३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब यज्ञद्वारा उत्तम प्रजाओं का उत्पन्न होना कथन करते हैं।
पदार्थ
(यदि) यदि (अग्निः) परमात्मा (घृतेभिः, आहुतः) आज्याहुति द्वारा (आहुतः) सेवन किया जाय तो (उत्, च) ऊर्ध्वदेश में (अव, च) और अधोदेश में (वाशीम्, भरते) सुबुद्धि को उत्पन्न करके वाणी को पुष्ट करता है, जैसे (असुरः) असु=प्राणों को देनेवाला सूर्य (निर्णिजम्) सप्तविध रूपों को पुष्ट करता है ॥२३॥
भावार्थ
सुबुद्धि उत्पन्न करने अर्थात् बुद्धि को उत्तम बनाने के दो ही उपाय हो सकते हैं, एक−शुद्ध रसों का सेवन करना, दूसरा−विद्वानों की सङ्गति द्वारा सत्कर्मों में मन लगाना और ये दोनों यज्ञसाध्य हैं। घृतादि पवित्र आहुतियों द्वारा अन्तरिक्ष में मेघशुद्धि से सुन्दर वृष्टि होती है तथा भूलोक में वायु आदि पदार्थ शुद्ध होते हैं, जिससे पवित्र रसों की उत्पत्ति होकर उनके सेवन द्वारा सुबुद्धि होती है, इसी अभिप्राय से मनु जी ने कहा किः−अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥ मनु० ३।७५शास्त्रोक्त विधि से अग्नि में दी हुई आहुति अन्तरिक्षलोक को प्राप्त होती, अन्तरिक्ष से पवित्र वृष्टि, वृष्टि से पवित्र अन्न और पवित्र अन्न से पवित्र प्राणीजात उत्पन्न होते हैं, अतएव उचित है कि मेधा=पवित्र बुद्धि सम्पादन करने के लिये पुरुष को नित्य यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये ॥२३॥
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
(घृतेभिः) घृत आदि द्रव्यों से (आहुतः) तर्पित (अग्निः) अग्नि (यदि) जब (वाशीम्) शब्दकारिणी ज्वाला को (उच्चावच) ऊँचे-नीचे (भरते) करता है, तब (असुरः+इव) सूर्य्य के समान (निर्णिजम्) निजरूप को प्रकाशित करता है ॥२३ ॥
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य्य उष्णता और प्रकाश से जगदुपकार करता है, तद्वत् अग्नि भी इस पृथिवी पर कार्य्य कर सकता है, यदि उसके गुणानुसार कार्य्य में लगा सकें ॥२३ ॥
विषय
अग्नि विद्युत् वा सूर्य के तुल्य नायक, विद्वान् प्रभु का रूप और उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( यदि ) जिस प्रकार ( घृतेभिः आहुतः ) घृत धाराओं से आहुति प्राप्त कर ( अग्निः ) अग्नि (उत् च अव च) ऊपर की ओर और नीचे की ओर भी ( वाशीम् भरते ) कान्ति प्रदान करता है तब वह ( असुरः इव ) प्राणों के देने वाले वायु या सूर्य के समान ( निर्णिजम् ) रूप को ( भरते ) धारण करता है अर्थात् असुर प्राणप्रद पवन भी जलों से युक्त होकर (वाशीं भरते) कान्तिमती विद्युत्, उसकी माध्यमिक वाणी गर्जना को धारण करती है, सूर्य ( घृतैः ) दीप्तियों से युक्त होकर (वाशीं भरते ) दीप्ति रूप को धारता है उसी प्रकार वह प्रभु और विद्वान् नायक भी, ( यदि ) जब ( घृतेभिः आहुतः ) स्नेहों से उपासित होकर ( वाशीम् ) उत्तम वाणी को ( उत् च अव च ) ऊपर और नीचे स्वरों के आरोहावरोह क्रम सहित ( भरते ) धारण करता है, तब वह ( असुरः इव ) ‘असुर’ अर्थात् बलवान् वीर पुरुष के ( निर्णिजं भरते ) रूप को धारण करता है, वीर पुरुष भी ( वाशीं ) वशकारिणी शक्ति, खड्ग आदि को ऊपर नीचे चलाता है, तेजों से चमकाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
असुर इव निर्णिजम् [प्रभु की तरह]
पदार्थ
[१] (यदि) = यदि (अग्निः) = प्रगतिशील जीव (घृतेभिः) = ज्ञानदीप्तियों से (आहुतः) = समन्तात् हुत होता है, और (वाशीम्) = अपनी प्रभु गुणगान की ध्वनि का (उत् च अव च) = आरोह व अवरोह पूर्वक (भरते) = भरण करता है, तो यह अग्नि (असुरः इव) = उस प्राणशक्ति का संचार करनेवाले ब्रह्म की तरह (निर्णिजम्) = रूप को धारण करता है। [२] हम अपने अन्दर ज्ञान की निरन्तर आहुतियाँ दें तथा प्रभु के गुणों का गायन करें तभी हम प्रभु को प्राप्त करेंगे। प्रभु की तरह ही चमक उठेंगे।
भावार्थ
भावार्थ-ज्ञान व स्तवन हमें प्रभु धारण के योग्य बनाते हैं। उस समय हम भी उस ब्रह्म की तरह दीप्त रूपवाले हो उठते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
When the fire of yajna fed on ghrta rises in flames with a crackle up and down, then it displays its form and power like an earthly version of the sun radiating its light.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्रकारे सूर्य उष्णता व प्रकाशाने जगावर उपकार करतो त्याप्रमाणे अग्नीही या पृथ्वीवर कार्य करू शकतो. जर त्याच्या गुणानुसार त्याला कार्यात लावू शकलो तर ॥२३॥
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