ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 26
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदार्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
पाता॑ वृत्र॒हा सु॒तमा घा॑ गम॒न्नारे अ॒स्मत् । नि य॑मते श॒तमू॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठपाता॑ । वृ॒त्र॒ऽहा । सु॒तम् । आ । घ॒ । ग॒म॒त् । न । आ॒रे । अ॒स्मत् । नि । य॒म॒ते॒ । श॒तम्ऽऊ॑तिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पाता वृत्रहा सुतमा घा गमन्नारे अस्मत् । नि यमते शतमूतिः ॥
स्वर रहित पद पाठपाता । वृत्रऽहा । सुतम् । आ । घ । गमत् । न । आरे । अस्मत् । नि । यमते । शतम्ऽऊतिः ॥ ८.२.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 26
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(सुतं) संस्कृतं पदार्थं (पाता) पाता पानशीलः (वृत्रहा) शत्रुहन्ता कर्मयोगी (अस्मत्, आरे) अस्मत्तो दूरं (न) न भवतु (आगमत्, घ) आगच्छत्वेव (शतमूतिः) अनेकविधरक्षावान् कर्मयोगी हि (नियमते) शासनं करोति ॥२६॥
विषयः
विनाशकत्वेन तमेवोपासीतेत्यनया शिक्षते ।
पदार्थः
पाता=पालकः । वृत्रहा=वृत्राणि अज्ञानानि अन्धकारांश्च हन्तीति वृत्रहा । पुनः । शतमूतिः=शतमनन्ता ऊतयो रक्षा यस्य स शतमूतिः निखिलरक्षक इन्द्रः । अस्मत्+आरे=अस्माकं समीपे । सुतम्=अभिसुतं मनसा समर्पितं वस्तु आलक्ष्य । आगमत्=अवश्यमागच्छतु । घ=अवधारणे आगत्य च । अस्मान् शुभकर्मणि नियमते=नितरां नियच्छतु=नियोजयतु ॥२६ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(सुतं) संस्कृत पदार्थ का (पाता) पान करनेवाला (वृत्रहा) शत्रुहन्ता कर्मयोगी (अस्मत्, आरे) हमसे दूर (न) न हो (आगमत्, घ) समीप में ही आवे (शतमूतिः) अनेकविध रक्षा करनेवाला कर्मयोगी ही (नियमते) शासन करता है ॥२६॥
भावार्थ
जिज्ञासुजन प्रार्थना करते हैं कि हे भगवन् ! आप हमारे समीप आवें अर्थात् विद्या, शिक्षा तथा अनेकविध उपायों से हमारी रक्षा करें, क्योंकि रक्षा करनेवाला कर्मयोगी ही शासक होता है, अरक्षक नहीं ॥२६॥
विषय
दुष्टों का वह विनाशक भी है, यह जान उसकी उपासना करे, यह इससे शिक्षा देते हैं ।
पदार्थ
(पाता) वह सर्वपालक (वृत्रहा) अज्ञान अप्रकाश अन्धकार आदि अनिष्ट वस्तुओं का सर्वथा विनष्ट करनेवाला तथा (शतमूतिः) अनन्त रक्षक और सहायक परमात्मा (अस्मत्+आरे) हमारे निकट (सुतम्) निवेदित पदार्थ की रक्षा के लिये (आगमत्+घ) अवश्य आवे । और (न+अस्मत्+आरे) हमसे दूर न जाय ॥२६ ॥
भावार्थ
परमात्मा ही सर्वविघ्ननिवारक और सर्वपालक है । उसकी आज्ञापालन करते हुए मनुष्य इस प्रकार निर्वाह करें, जिससे सदाचारनिरत उन्हें देख प्रसन्न हो और आपदों से बचावे ॥२६ ॥
विषय
प्रभु परमेश्वर से बल ऐश्वर्य की याचना
भावार्थ
( अस्मत् ) हम से दूर रहकर भी ( वृत्रहा ) विघ्नों, विघ्नकारी शत्रुओं का नाशक राजा ( पाता ) राष्ट्र का पालक होकर राष्ट्र को ( सुतम् ) पुत्रवत् जान कर ( आ घ गमत् ) अवश्य आवे । वह ( शतम्-ऊतिः ) सैकड़ों रक्षा साधनों से सम्पन्न होकर ( नियमते ) राष्ट्र की व्यवस्था करता है। ( २ ) इसी प्रकार प्रभु पुत्रवत् उत्पन्न संसार का पालक होकर उसको प्राप्त है, हम अज्ञानियों से दूर है। तो भी वह सैकड़ों रक्षा साधनों से सम्पन्न हो जगत् को नियमों में बांध रहा है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
नियमते शतमूतिः
पदार्थ
[१] वे प्रभु (वृत्रहा) = हमारे वासना रूप शत्रुओं को नष्ट करनेवाले हैं और इस प्रकार (सुतं पाता) = उत्पन्न सोम का रक्षण करते हैं। ये प्रभु (घा) = निश्चय से (आगनत्) = हमें प्राप्त हों। [२] (अस्मत्) = हमारे से आरे दूर व समीप देशों में होते हुए वे प्रभु (शतमूतिः) = सैंकड़ों रक्षणोंवाले होते हुए (नियमते) = सारे संसार का नियमन करते हैं। 'आराद् दूरसमीपयो:' प्रभु हमारे से दूर से दूर देश में हैं और समीप से समीप देश में भी है। सर्वत्र होते हुए वे संसार का नियमन कर रहे हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारी वासनाओं का विनाश करके हमारे सोम का रक्षण करते हैं, वे दूर व समीप सर्वत्र होते हुए सैंकड़ों रक्षणोंवाले हैं और संसार का नियमन कर रहे हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
May the connoisseur of distilled soma, destroyer of darkness, dishonour and destitution, come and never be far away from us. The lord who commands a hundred forces of defence, protection and progress rules all, friends and foes.
मराठी (1)
भावार्थ
जिज्ञासू प्रार्थना करतात, की हे भगवान! तू आमच्या निकट ये. अर्थात विद्या, शिक्षण व अनेक प्रकारच्या उपायाने आमचे रक्षण कर. कारण रक्षक कर्मयोगीच शासक असतो, अरक्षक नव्हे. ॥२६॥
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