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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    एह हरी॑ ब्रह्म॒युजा॑ श॒ग्मा व॑क्षत॒: सखा॑यम् । गी॒र्भिः श्रु॒तं गिर्व॑णसम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒ह । हरी॒ इति॑ । ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑ । श॒ग्मा । व॒क्ष॒तः॒ । सखा॑यम् । गीः॒ऽभिः । श्रु॒तम् । गिर्व॑णसम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एह हरी ब्रह्मयुजा शग्मा वक्षत: सखायम् । गीर्भिः श्रुतं गिर्वणसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इह । हरी इति । ब्रह्मऽयुजा । शग्मा । वक्षतः । सखायम् । गीःऽभिः । श्रुतम् । गिर्वणसम् ॥ ८.२.२७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ यज्ञस्थौ ज्ञानयोगिकर्मयोगिनौ परमात्मानमुपदिशतामिति कथ्यते।

    पदार्थः

    (ब्रह्मयुजा) परमात्मना सहकृतसम्बन्धौ (शग्मा) लोकानां सुखजनकौ (हरी) ज्ञानयोगिकर्मयोगिनौ (इह) मम यज्ञे (सखायं) हितकारकं (श्रुतं) प्रसिद्धं (गिर्वणसं) गीर्भिर्भजनीयं परमात्मानं (गीर्भिः) वाणीभिः (आवक्षतः) आवाहयताम् ॥२७॥

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    विषयः

    परमात्मदर्शनं कया रीत्या भवतीत्यनयोपदिशति ।

    पदार्थः

    गीर्भिः=वचनैः परम्परोक्तैः । श्रुतम्=न कैश्चिदपि कदापि प्रत्यक्षेण दृष्टं गृहीतं वा किन्तु श्रुतमेव । पुनः । गिर्वणसम्=आदिसृष्टौ गिरां वाणीनां वनसं संविभक्तारं प्रदातारम् । ईदृशं सखायं=सर्वेषां मित्रं महेशम् । इह=संसारद्रष्टॄणां समक्षे । हरी=परस्परहरणशीलौ स्थावरजङ्गमात्मकौ संसारौ । आवक्षतः=आवहत आनयतः प्रकाशयत इत्यर्थः । कीदृशौ हरी । ब्रह्मयुजा=ब्रह्मयुजौ ब्रह्मणा चिच्छक्त्या संयुक्तौ । तथा । शग्मा=शग्मौ सुखकरौ ॥२७ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब यज्ञस्थान को प्राप्त ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी का परमात्मोपदेश करना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (ब्रह्मयुजा) परमात्मा के साथ सम्बन्ध रखनेवाले (शग्मा) लोक के सुखजनक (हरी) ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी (इह) मेरे यज्ञ में (सखायं) सबके मित्र (श्रुतं) प्रसिद्ध (गिर्वणसं) वाणियों द्वारा भजनीय परमात्मा को (गीर्भिः) वाणियों से (आवक्षतः) आवाहित करें ॥२७॥

    भावार्थ

    परमात्मा की आज्ञा पालन करनेवाले तथा संसार को सुख का मार्ग विस्तृत करनेवाले ज्ञानयोगी और कर्मयोगी यज्ञ में आकर वेदवाणियों द्वारा उस प्रभु की उपासना करते हुए सब जिज्ञासुजनों को परमात्मा की आज्ञा पालन करने का उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासुओ ! तुम उस परमात्मा की उपासना तथा आज्ञापालन करो, जो सबको मित्रता की दृष्टि से देखता है, जैसा कि “मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्” इत्यादि मन्त्रों में वर्णन किया है कि सर्वमित्र परमात्मा की उपासना करता हुआ प्रत्येक पुरुष उसी की आज्ञापालन में तत्पर रहे ॥२७॥

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    विषय

    परमात्मदर्शन किस रीति से होता है, यह इससे उपदेश देते हैं ।

    पदार्थ

    (गीर्भिः+श्रुतम्) जिसको परम्परा से ऋषि-मुनियों के वचनों द्वारा सुनते आये हैं । उसे न किन्होंने देखा और न सुना, परन्तु (गिर्वणसम्) जो स्वयं आदिसृष्टि में वाणी का प्रदाता है और (सखायम्) सर्व प्राणियों का मित्रस्वरूप है, उस महेश को (इह) इस संसार में (हरी) परस्पर हरणशील स्थावर और जङ्गम संसाररूप दो घोड़े (आ+वक्षतः) अच्छी तरह से प्रकाशित करते हैं । वे हरि कैसे हैं (ब्रह्मयुजा) ब्रह्म=चित् शक्ति से संयुक्त अर्थात् जिनमें परमात्मशक्ति विद्यमान हैं तथा (शग्मा) परमसुखकारी हैं ॥२७ ॥

    भावार्थ

    मूर्तवस्तुवत् वह कदापि प्रत्यक्ष नहीं होता । परम्परा से वह केवल सुना जाता है, उसको किन्हींने देखा नहीं, क्योंकि वह इन्द्रियों से अदृश्य है । तब क्या उसके दर्शन के लिये यत्न भी न किया जाय, ऐसा नहीं । ये उसकी विभूतियाँ उसको प्रकाशित करती हैं, इनमें ही वह विद्यमान है । इनमें ही वह अन्वेष्ट्य है । इसी कारण ये विभूतियाँ परस्पर कल्याणकारिणी हैं । इनके कल्याणकारित्व को भी हम लोग नहीं देखते, क्योंकि चित्त विक्षिप्त हो रहा है ॥२७ ॥

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    विषय

    प्रभु परमेश्वर से बल ऐश्वर्य की याचना

    भावार्थ

    ( ब्रह्म-युजा ) बृहद् राष्ट्र के पालक पद पर नियुक्त बड़े वेतनादि पर सहोयोगी हो ( हरी ) विद्वान् स्त्री पुरुष ( इस ) इस राष्ट्र में ( शग्मा ) सुखदायक होकर ( सखायम् ) मित्रवत् इन्द्र को ( आ वक्षतः ) अपने ऊपर धारण करते हैं। और ( गीर्भिः श्रुतं ) वाणियों से विख्यात बहुश्रुत ( गिर्वणसम् ) वाणियों को स्वीकारने और देने वाले उसको वे दोनों धारण करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    ब्रह्म-युजा-शग्मा-हरी

    पदार्थ

    [१] (इह) = इस जीवन में (हरी) = ये हमारे इन्द्रियाश्व (सखायम्) = उस मित्र प्रभु को (आवक्षतः) = प्राप्त कराते हैं। वे इन्द्रियाश्व जो (ब्रह्मयुजा) = ज्ञान के साथ सम्पर्क को करनेवाले हैं और (शग्मा) = [शग्म इति कर्म नाम नि० २।१] यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त होनेवाले हैं। और इन यज्ञादि कर्मों के द्वारा सुख प्राप्त करानेवाले होते हैं [शग्म इति सुख नाम नि० ३। ६] । ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में लगी रहें और इसी प्रकार कर्मेन्द्रियाँ यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहें तो मनुष्य प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चल रहा होता है। [२] ये इन्द्रियाश्व उस सखा को प्राप्त कराते हैं, जो (गीर्भिः श्रुतम्) = वेदवाणियों के द्वारा सुनाई पड़ते हैं 'ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्' सब ऋचाएँ उस प्रभु का ही तो वर्णन कर रही हैं। (गिर्वणसम्) = वे प्रभु इन ज्ञान वाणियों के द्वारा सम्भजनीय हैं। इन ज्ञानवाणियों में विचरनेवाला पुरुष ही प्रभु को पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञान प्राप्ति में प्रवृत्त होकर तथा कर्मेन्द्रियों से यज्ञादि कर्मों को करते हुए प्रभु को प्राप्त करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let the brave veterans of knowledge and yajnic karma, dedicated to Veda Brahma and humanity, with holy songs of divinity, invoke the most venerable and celebrated lord here on the vedi as our friend and companion.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराची आज्ञा पालन करणारे व जगाला सुखाचा मार्ग विस्तृत करणारे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी यज्ञात येऊन वेदवाणीद्वारे त्या प्रभूची उपासना करत सर्व जिज्ञासूंना परमेश्वराची आज्ञा पालन करण्याचा उपदेश करतात, की हे जिज्ञासूंनो! तुम्ही त्या परमेश्वराची उपासना व आज्ञापालन करा जो सर्वांना मैत्रीच्या दृष्टीने पाहतो. जसे ‘मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षत्ताम्’ इत्यादी मंत्रात वर्णन केलेले आहे, की सर्वांचा मित्र असलेल्या परमेश्वराची उपासना करत प्रत्येक पुरुषाने त्याच्याच आज्ञापालनात तत्पर राहावे. ॥२७॥

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