ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 29
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
स्तुत॑श्च॒ यास्त्वा॒ वर्ध॑न्ति म॒हे राध॑से नृ॒म्णाय॑ । इन्द्र॑ का॒रिणं॑ वृ॒धन्त॑: ॥
स्वर सहित पद पाठस्तुतः॑ । च॒ । याः । त्वा॒ । वर्ध॑न्ति । म॒हे । राध॑से । नृ॒म्णाय॑ । इन्द्र॑ । का॒रिण॑म् । वृ॒धन्तः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुतश्च यास्त्वा वर्धन्ति महे राधसे नृम्णाय । इन्द्र कारिणं वृधन्त: ॥
स्वर रहित पद पाठस्तुतः । च । याः । त्वा । वर्धन्ति । महे । राधसे । नृम्णाय । इन्द्र । कारिणम् । वृधन्तः ॥ ८.२.२९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 29
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ तौ सत्कृत्य बलादिकं प्रति प्रार्थ्येते।
पदार्थः
(स्तुतः) स्तोतारं (कारिणं, वृधन्तः) क्रियाशीलाञ्जनान् उत्साहयन्तः (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (महे, राधसे) महते धनाय (नृम्णाय) बलाय (च त्वा) त्वां (वर्धयन्ति) स्तुति द्वारा वर्धयन्ति (यः, च) यास्तदीयाः स्तुतयः ताश्च त्वां वर्धयन्ति ॥२९॥
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! स्तुतः=स्तुवन्ति तव गुणान् गायन्ति ये ते स्तुतः स्तोतारः । स्तौतेः क्विप् । च पुनः । यास्तदीयाः स्तुतयः सन्ति ताः । उभये मिलित्वा । कारिणम्=सुखकारिणम् । त्वा=त्वाम् तव कीर्तिम् । स्वैः स्वैः शुभकर्मभिः प्रभावैश्च । वृधन्त=वर्धयन्तः सन्तः । महे=महते । राधसे=पूताय धनाय । तथा । नृम्णाय=बलाय च । वर्धन्ति=वर्धन्ते संसारोन्नतिषु सदा वर्धन्त इति तव महती कृपा ॥२९ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब सत्कारानन्तर उनसे बल तथा धन के लिये प्रार्थना करना कथन करते हैं।
पदार्थ
(स्तुतः) स्तोता लोग (कारिणं, वृधन्तः) क्रियाशील मनुष्यों को उत्साहित करते हुए (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (महे, राधसे) महान् धन के लिये (नृम्णाय) बल के लिये (त्वा) आपको (वर्धन्ति) स्तुति द्वारा बढ़ाते हैं (याः, च) और उनकी स्तुतियें आपको यश प्रकाशन द्वारा बढ़ाती हैं ॥२९॥
भावार्थ
हे कर्मयोगिन् ! स्तोता लोग कर्मशील पुरुषों को उत्साहित करते हुए आपसे धन तथा बल के लिये प्रार्थना करते हैं कि कृपा करके आप हमें पदार्थविद्या के आविष्कारों द्वारा उन्नत करें, जिससे हमारा यश संसार में विस्तृत हो और विशेषतया उन्नति को प्राप्त हो ॥२९॥
विषय
फिर उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे सर्वद्रष्टा इन्द्रवाच्य परमात्मन् ! (स्तुतः) स्तुति करनेवाले साधुजन (च) और (याः) जो उनकी स्तुतियाँ हैं, वे दोनों मिलके (कारिणम्) सुखकारी (त्वा) तुझको अर्थात् तेरी कीर्ति को निज-२ कर्मों तथा प्रभावों से (वृधन्तः) बढ़ाते हुए (महे) महान् (राधसे) पूज्य पवित्र धन के लिये तथा (नृम्णाय) बल के लिये (वर्धन्ति) संसार की उन्नति में बढ़ते जाते हैं । यह आपकी महती कृपा है ॥२९ ॥
भावार्थ
हे परम इष्टदेव ! जो तेरी कीर्ति गाते हैं, उनका संसार में महोदय देखा जाता है । उनका अधःपतन नहीं होता । उनकी वाणी भी समुन्नता, शुद्धा, पवित्रतमा, सत्या, बहुभाषायुक्ता और नाना शब्दमयी होती है ॥२९ ॥
विषय
प्रभु परमेश्वर से बल ऐश्वर्य की याचना
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) आत्मन् ! ( या स्तुतः ) जो स्तुतियां ( त्वां कारिणं ) तुझ कर्त्ता को बढ़ाती हैं जो पुरुष ( महे राधसे ) बड़े ऐश्वर्य और ( नृम्णाय ) ज्ञान के लिये ( वृधन्तः ) बढ़ते हुए ( त्वा कारिणं ) तुझ कर्त्ता को प्राप्त कर लेते हैं वे ( स्तुतः दधिरे ) उन स्तुतियों को धारण करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
महे, राधसे, नृम्णाय
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (स्तुतः च) = और वे स्तुतियाँ (याः) = जो (त्वा) = आपको बढ़ाती हैं, आपका यशोगान करती हैं, वे इस स्तोता के (महे) = महत्त्व के लिये होती हैं, (राधसे) = ऐश्वर्य के लिये होती हैं और (नृम्णाय) = शक्ति के लिये होती हैं। इन स्तुतियों के द्वारा स्तोता का 'महत्त्व [यश], ऐश्वर्य व बल' बढ़ता है। [२] हे प्रभो ! आपके ये स्तवन (कारिणम्) = क्रियाशील पुरुष का ही (वृधन्तः) = वर्धन करते हैं। वस्तुतः सच्चा स्तोता होता ही क्रियाशील है। अकर्मण्यता का प्रभु स्तवन से कोई सम्बन्ध नहीं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु-स्तवन करते हैं। यह प्रभु-स्तवन हमारी महिमा (यश) को बढ़ाता है, हमारे ऐश्वर्य की वृद्धि का कारण बनता है और हमारे बल का वर्धन करता है। स्तोता सदा क्रियावान् होता है, अकर्मण्य नहीं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, adoring and exhilarating you as the great achiever, honoured by songs of praise, the devotees celebrate and exalt you for the sake of greatness, wealth and excellence of life and their songs glorify you.
मराठी (1)
भावार्थ
हे कर्मयोगी! स्तोता लोक कर्मशील पुरुषांना उत्साहित करत धन व बलासाठी तुमची प्रार्थना करतात, की कृपा करून तुम्ही आम्हाला पदार्थविद्येच्या आविष्काराद्वारे उन्नत करा. ज्यामुळे आमचे यश जगात विस्तृत व्हावे व विशेष उन्नती व्हावी. ॥२९॥
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