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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 35
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    प्रभ॑र्ता॒ रथं॑ ग॒व्यन्त॑मपा॒काच्चि॒द्यमव॑ति । इ॒नो वसु॒ स हि वोळ्हा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रऽभ॑र्ता । रथ॑म् । ग॒व्यन्त॑म् । अ॒पा॒कात् । चि॒त् । यम् । अव॑ति । इ॒नः । वसु॑ । सः । हि । वोळ्हा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रभर्ता रथं गव्यन्तमपाकाच्चिद्यमवति । इनो वसु स हि वोळ्हा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽभर्ता । रथम् । गव्यन्तम् । अपाकात् । चित् । यम् । अवति । इनः । वसु । सः । हि । वोळ्हा ॥ ८.२.३५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 35
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ कर्मयोगी स्वराष्ट्रं सुपथं कुर्यादिति कथ्यते।

    पदार्थः

    (प्रभर्ता) यः प्रहरणशीलः कर्मयोगी (अपाकात्) अपरिपक्वबुद्धिसकाशात् (चित्) अन्यस्मादपि (यं, गव्यन्तं, रथं) यं प्रकाशमिच्छन्तं रथं (अवति) रक्षति (सः, हि) स हि कर्मयोगी (इनः) प्रभुः सन् (वसु) रत्नस्य (वोळहा) धर्ता भवति ॥३५॥

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    विषयः

    इन्द्रेण रक्षितो जनोऽभ्युदयं प्राप्नोतीत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    प्रभर्ता=सर्वेषां प्रकर्षेण भर्ता पालकः । शत्रूणां प्रहर्ता वा इन्द्रः । रथम्=रमते परमात्मनि आनन्दति यः स रथः परमात्मरतस्तम् । गव्यन्तम्=गाः स्तुतिरूपा वाच इच्छन्तम् । यं स्तोतारम् । अपाकात्=अविपक्वप्रज्ञात् शत्रोः । चिच्छब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । विपक्वप्रज्ञादपि शत्रोः । अवति=रक्षति । स हि=स एव । इनः=जगति प्रभुर्भवति । तथा । वसु=धनम् । वोढा=धनस्य साधुवाही भवति । वहेः साधुकारिणि तृन् । अतः न लोकाव्ययेति कर्मणि षष्ठीप्रतिषेधः ॥३५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब कर्मयोगी अपने राष्ट्र को उत्तम मार्गों द्वारा सुसज्जित करे, यह कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (प्रभर्ता) जो प्रहरणशील कर्मयोगी (अपाकात्) अपरिपक्वबुद्धिवाले तथा (चित्) अन्य से (यं, गव्यन्तं, रथं) प्रकाश की इच्छा करनेवाले जिस रथ की (अवति) रक्षा करता है (सः, हि) वही कर्मयोगी (इनः) प्रभु होकर (वसु) रत्नों का (वोळहा) धारण करनेवाला होता है ॥३५॥

    भावार्थ

    जो कर्मयोगी मार्गों को विस्तृत, साफ सुथरे तथा प्रकाशमय बनाता है, जिसमें रथ तथा मनुष्यादि सब आरामपूर्वक सुगमता से आ जा सकें, वही प्रभु होता और वही श्रीमान्=सब रत्नादि पदार्थों का स्वामी होता है ॥३५॥

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    विषय

    इन्द्र से सुरक्षित जन अभ्युदय पाता है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (प्रभर्ता) सकल प्राणियों का सब प्रकार से भरण-पोषण करनेवाला यद्वा शत्रुओं का संहारकर्त्ता इन्द्र (अपाकात्+चित्) अज्ञानी वा ज्ञानी शत्रु से यद्वा विविध विघ्नों से (यम्) जिस (रथम्) रत=परमात्मरत (गव्यन्तम्) परिष्कृत सुन्दर वाणी से स्तुति करनेवाले भक्त की (अवति) रक्षा करता है । (सः+हि) वही (इनः) इस जगत् में प्रभु=स्वामी और (वसु+वोढा) वही धन का अधिपति होता है ॥३५ ॥

    भावार्थ

    सब बाधाओं से जिस भक्त को ईश्वर बचाता है, वही जनों और धनों का अधिपति होता है ॥३५ ॥

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    विषय

    प्रभु परमेश्वर से बल ऐश्वर्य की याचना

    भावार्थ

    वह ( प्र-भर्ता ) सब से उत्कृष्ट, प्रजा का भरण पोषण करने वाला प्रभु, ( अपाकात् ) कच्चे मार्ग से रथ को सारथि के समान ( यम् ) जिस ( गव्यन्तं ) स्तुति वाणी के इच्छुक या भूमि आदि के इच्छुक ( रथम् ) रमणकारी भक्तजन की ( अवति ) रक्षा करता है ( सः हि ) वही ( इनः ) स्वामी होकर ( वसु वोढा ) ऐश्वर्य धारण करने और उसका उत्तम उपयोग करने वाला होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    रथं प्रभर्ता

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु ही (रथम्) = हमारे इस शरीर रथ का (प्रभर्ता) = भरण करते हैं। उस रथ का जो (गव्यन्तम्) = ज्ञान की वाणियों की कामनावाला होता है। अर्थात् प्रभु इस शरीर रथ को ऐसा बनाते हैं कि हम इसमें ज्ञान की वाणियों की कामनावाले बनते हैं। और वे प्रभु (चित्) = ही (यम) = जिस शरीर-रथ को (अपाकात्) = [Indigestion] अपचन से (अवति) = बचाते हैं। प्रभु स्मरण से भोजन की नियमितता के होने पर अपचन व रोगों का भय नहीं रहता। [२] वे प्रभु (इनः) = स्वामी हैं। (सः हि) = वे ही (वसु वोढा) = सब निवास के लिये आवश्यक धनों का प्राप्त कराते हैं। ये धन हमें निधन [मृत्यु] से बचानेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही हमारे शरीर रथों का रक्षण करते हैं, हमें ज्ञानयुक्त व नीरोग बनाते हैं। निवास के लिये आवश्यक धनों को प्रभु ही प्राप्त कराते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The one who sustains and supports all and protects the chariot of life moving on course from the unforeseen is the lord who is also the bearer and harbinger of the world’s wealth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो कर्मयोगी मार्ग विस्तृत स्वच्छ व प्रकाशमय करतो, बनवितो, ज्यात रथ व माणसे इत्यादी सर्व आरामपूर्वक सुगमतेने जाऊ येऊ शकतात तोच प्रभू (स्वामी) व तोच श्रीमान = सर्व रत्ने इत्यादी पदार्थांचा स्वामी असतो. ॥३५॥

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