ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 40
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडार्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
इ॒त्था धीव॑न्तमद्रिवः का॒ण्वं मेध्या॑तिथिम् । मे॒षो भू॒तो॒३॒॑ऽभि यन्नय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒त्था । धीऽव॑न्तम् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । का॒ण्वम् । मेध्य॑ऽअतिथिम् । मे॒षः । भू॒तः । अ॒भि । यन् । अयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इत्था धीवन्तमद्रिवः काण्वं मेध्यातिथिम् । मेषो भूतो३ऽभि यन्नय: ॥
स्वर रहित पद पाठइत्था । धीऽवन्तम् । अद्रिऽवः । काण्वम् । मेध्यऽअतिथिम् । मेषः । भूतः । अभि । यन् । अयः ॥ ८.२.४०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 40
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ कर्मयोगी स्वराष्ट्रे उपदेशकान् निर्माय तान् रक्षत्वित्युच्यते।
पदार्थः
(अद्रिवः) हे आदरणशक्तियुक्त ! (इत्था) अनेन प्रकारेण (धीवन्तं) प्रशस्तवाचं (काण्वं) विद्वत्कुलजं (मेध्यातिथिं) संगमनीयातिथिं (मेषः, भूतः) साक्षीव (अभियन्) पार्श्ववर्ती सन् (अयः) अभिगमयसि ॥४०॥
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे अद्रिवः=अद्रिमन् दण्डधर परमात्मन् ! सर्वेषां न्यायकारिन् ! यस्त्वम् । मेषोभूतः=सर्वेषां मित्रभूतः सन् । धीवन्तम्=धीमन्तं ज्ञानिनं क्रियावन्तम् । काण्वम्=स्तुतिपाठकम् । मेध्यातिथिम्=मेध्यः पूज्योऽतिथिः परमात्मा यस्य स मेध्यातिथिस्तं प्रियेश्वरम् । ईदृशं जनम् । अभियन्=अभिगच्छन् अनुगृह्णन् । इत्था=दृष्टिगोचरीभूतेन अनेन प्रकारेण । अयः=गमयसि=उन्नतिं प्रापयसि । स त्वमुपास्योऽसि ॥४० ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब कर्मयोगी अपने राष्ट्र में उपदेशकों को बढ़ाकर उनकी रक्षा करे, यह कथन करते हैं।
पदार्थ
(अद्रिवः) हे आदरणशक्तिसम्पन्न कर्मयोगिन् ! (इत्था) इस उक्त प्रकार से (धीवन्तं) प्रशस्त वाणीवाले (काण्व) विद्वानों के कुल में उत्पन्न (मेध्यातिथिं) संगतियोग्य अतिथि को (मेषः, भूतः) साक्षी के समान (अभियन्) पाश्ववर्ती होकर (अयः) चलाते हो ॥४०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में कर्मयोगी का यह कर्तव्य कथन किया गया है कि वह विद्वानों की सन्तानों को सुशिक्षित बनाकर राष्ट्र में उपदेश करावे और उनकी रक्षा करे, जिससे उसका राष्ट्र सद्गुणसम्पन्न और धर्मपथगामी हो ॥४०॥
विषय
पुनः उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
(अद्रिवः) हे दण्डधर सर्वन्यायकारिन् परमात्मन् ! जो तू (मेषः+भूतः) सर्व प्राणियों का परममित्र होकर (धीवन्तम्) धीमान् क्रियावान् (काण्वम्) स्तुतिपाठक (मेध्यातिथिम्) और परमात्मानुरागी जन के (अभियन्) अनुग्रह करता हुआ (इत्था) इस प्रकार (अयः) उसको उन्नति की ओर ले जाता है, वही तू उपास्यदेव है ॥४० ॥
भावार्थ
जो ईश्वर नाना उपायों से उपासक की रक्षा करता है, जो सर्वज्ञ न्यायकारी शुद्ध है, उसी की उपासना करो ॥४० ॥
विषय
स्तुत्य प्रभु । उससे प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
( इत्था ) इस प्रकार हे ( अद्रिवः ) सर्वशक्तिमन् ! ( धीवन्तम् ) बुद्धिमान् ध्यान धारणा युक्त, ( काण्वं ) विद्वान्, (मेध्यातिथिम्) व्यापक प्रभु वा अतिथि के उपासक संस्कार करने वाले के प्रति तू ( मेष: ) सब सुखों का देने वाला मेघवत् ( भूतः ) होकर ( अभि यन् ) प्रत्यक्ष होकर ( अयः ) प्राप्त होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
धीमान्- काण्व - मेध्यातिथि
पदार्थ
[१] हे (अद्रिवः) = आदरणीय-उपासनीय प्रभो ! (इत्था) = सचमुच (मेषः) = सुखों का सेचन करनेवाले (भूतः) = हुए-हुए तथा (धीवन्तम्) = बुद्धिपूर्वक कर्म करनेवाले की (अभियन्) = ओर जाते हुए आप (काण्वम्) = मेधावी को तथा (मेध्यातिथिम्) = पवित्र कर्मों की [मेध्य] और निरन्तर गतिवाले पुरुष को [अत सातत्यगमने] (अयः) = प्राप्त होते हैं। [२] प्रभु उसी को प्राप्त होते हैं, जो [क] बुद्धिपूर्वक कर्मों में प्रवृत्त हों, [ख] मेधावी हो तथा [ग] पवित्र कर्मों में निरन्तर गतिवाला हो। ऐसे व्यक्तियों के लिये ही आप सुखों का सेचन करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु को वही प्राप्त करता है जो ज्ञानपूर्वक कर्मों को करता हुआ पवित्राचरण बनता है। इन्हीं के लिये प्रभु सुखों का सेचन करनेवाले होते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Thus, O lord commander of the clouds and mountains, do you reach and guide the celebrant sage of the line of the wise and bless the honoured guest, being a very shower of peace and pleasure of soma.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात कर्मयोग्याचे कर्तव्य सांगितलेले आहे. त्याने विद्वानांच्या संतानांना सुशिक्षित बनवून राष्ट्राला उपदेश करावा व त्यांचे रक्षण करावे. ज्यामुळे त्याचे राष्ट्र सद्गुणसंपन्न व धर्मपथगामी व्हावे. ॥४०॥
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