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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 6
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अच्छा॑ च त्वै॒ना नम॑सा॒ वदा॑मसि॒ किं मुहु॑श्चि॒द्वि दी॑धयः । सन्ति॒ कामा॑सो हरिवो द॒दिष्ट्वं स्मो व॒यं सन्ति॑ नो॒ धिय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । च॒ । त्वा॒ । ए॒ना । नम॑सा । वदा॑मसि । किम् । मुहुः॑ । चि॒त् । वि । दी॒ध॒यः॒ । सन्ति॑ । कामा॑सः । ह॒रि॒ऽवः॒ । द॒दिः । त्वम् । स्मः । व॒यम् । सन्ति॑ । नः॒ । धियः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छा च त्वैना नमसा वदामसि किं मुहुश्चिद्वि दीधयः । सन्ति कामासो हरिवो ददिष्ट्वं स्मो वयं सन्ति नो धिय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ । च । त्वा । एना । नमसा । वदामसि । किम् । मुहुः । चित् । वि । दीधयः । सन्ति । कामासः । हरिऽवः । ददिः । त्वम् । स्मः । वयम् । सन्ति । नः । धियः ॥ ८.२१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    हे सेनापते ! (एना, नमसा) अनेन स्तोत्रेण सह (त्वा, अच्छ, च) तवाभिमुखं गत्वा (वदामसि) प्रार्थयामहे (मुहुश्चित्) पुनः पुनः (किम्) कुतः (विदीधयः) विचिन्तयसि (हरिवः) हे प्रशस्ताश्व ! (सन्ति, कामासः) मम मनोरथाः सन्ति (त्वम्, ददिः) त्वं च प्रदाताऽस्ति (वयम्, स्मः) वयं च तव स्मः किं च (नः, धियः) अस्माकं कर्माण्यपि (सन्ति) त्वयि एव वर्त्तन्ते ॥६॥

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    विषयः

    पुनः प्रार्थनाविधानम् ।

    पदार्थः

    अच्छ च=अपि च । एना=अनेन । नमसा=नमस्कारेण । त्वा+वदामसि=त्वां स्तुमः । त्वम् । किम्=कस्मात् कारणात् । मुहुश्चित्=मुहुर्मुहुः । विदीधयः=विचिन्तयसि । विपूर्वो दीधितिश्चिन्तने । दीधीङ् दीप्तिदेवनयोः । अस्माकम् । कामासः=भूयांसः कामाः सन्ति । हे हरिवः=हे संसारिन् ! त्वम् । ददिः=दाता । वयं तव स्मः । नोऽस्माकम् । धियः=कर्माणि च त्वदर्थानि सन्ति ॥६ ॥

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    हिन्दी (5)

    पदार्थ

    हे रक्षक सेनापते ! (एना, नमसा) इस स्तुति शब्द से (त्वा, अच्छ, च) आपके सन्मुख जाकर (वदामसि) हम प्रार्थना करते हैं आप (मुहुश्चित्) बार बार (किम्, विदीधयः) क्या स्मरण करते हैं (हरिवः) हे प्रशस्त अश्वोंवाले अथवा हरणशील शक्तियोंवाले (सन्ति, कामासः) आपके प्रजाजन हम लोगों के जो मनोरथ हैं (त्वम्, ददिः) आप ही उनके साधक हैं, (वयम्) हम सब (स्मः) आप ही के हैं और (नः, धियः) हमारे कर्म भी (सन्ति) आपके ही आज्ञानुसारी हैं ॥६॥

    भावार्थ

    सेनापति को उचित है कि जो प्रजाओं के कार्य्य अपने अधीन हैं, उनको विचारपूर्वक शीघ्र ही करना चाहिये और प्रजाओं को भी उचित है कि उसकी अनुमति से ही सब कर्म करें, विरुद्ध नहीं ॥६॥

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    विषय

    फिर प्रार्थना का विषय कहते हैं ।

    पदार्थ

    (अच्छ+च) और भी (एना+नमसा) इस नमस्कार द्वारा (त्वा+वदामसि) तेरी वारम्बार प्रार्थना करते हैं, (किम्) किस कारण तू (मुहुः+चित्) भूयो भूयः (विदीधयः) चिन्ता कर रहा है । (हरिवः) हे संसारिन् ! (कामासः+सन्ति) हम लोगों की अनेक कामनाएँ है, (त्वम्+ददिः) तू दाता है (वयम्+स्मः) हम तेरे हैं (नः+धियः) हम लोगों की क्रिया और ज्ञान (सन्ति) विद्यमान हैं, अतः तुझसे प्रार्थना करते हैं ॥६ ॥

    भावार्थ

    मनुष्य के हृदय में अनेक कामनाएँ हैं, हितकारी और शुभ कामनाओं को ईश्वर पूर्ण करता है ॥६ ॥

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    विषय

    ईश-विनय के प्रयोजन।

    भावार्थ

    हे ( हरिवः ) मनुष्यों के स्वामिन् ! सूर्यादि लोकों के स्वामिन् ! हम ( त्वा एना नमसा अच्छ वदामसि ) तुझे लक्ष्य कर इस विनय से व्यक्त वाणी द्वारा प्रार्थना करते हैं। ( मुहुः ) बार २ तू भी ( किं वि दीधयः चित् ) क्या विचारता सा रहता है कि भला हम क्यों तेरी स्तुति करते हैं । भगवन् ! स्वामिन् ! ( कामासः सन्ति ) हमारी बहुत सी अभिलाषाएं हैं। और ( त्वं ददिः ) तू ही उन को देने या पूर्ण करने हारा दाता है। ( त्वा अच्छ वयं स्मः ) हम भी ये तेरे सन्मुख याचक हैं । ( नः धियः सन्ति ) हमारे उत्तम कर्म, स्तुतिये और उत्तम बुद्धियें भी हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ १—१६ इन्दः। १७, १८ चित्रस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ३, १५ विराडुष्णिक्। १३, १७ निचृदुष्णिक्। ५, ७, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। २, १२, १४ पादनिचृत् पंक्तिः। १० विराट पंक्ति:। ६, ८, १६, १८ निचृत् पंक्ति:। ४ भुरिक् पंक्तिः॥

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1169 
    ओ३म् अच्छा॑ च त्वै॒ना नम॑सा॒ वदा॑मसि॒ किं मुहु॑श्चि॒द्वि दी॑धयः ।
    सन्ति॒ कामा॑सो हरिवो द॒दिष्ट्वं स्मो व॒यं सन्ति॑ नो॒ धिय॑: ॥
    ऋग्वेद 8/21/6

    जग में तुझसा कोई ना 
    कर जोड़ आए 
    तेरी शरण प्रभु 
    कर तू दया 
    दु:ख के हर्ता, 
    दु:खहर्ता
    जग में तुझसा कोई ना 

    हाथ मेरे खाली 
    क्या बोले वाणी ?
    मुझको अपना लो 
    अबन्धुओं के बन्धु प्रभु
    तुझको सदा ही नमन करूँ 
    अहंकार तज सीख बाँध ली 
    लक्ष्य मिला तुझसे दाता 
    तुझसे दाता
    जग में तुझसा कोई ना 

    सबके अन्त:करण की सुने 
    ज्ञान-दान से झोली भरे 
    तेरी कृपा है बड़ी पावनी
    कामना सबकी तू ही जाने 
    कभी मित्रता तोड़े ना 
    तोड़े ना
    जग में तुझसा कोई ना 

    कई जन्मों की पुण्याई 
    पल-छिन तूने कृपा दिखाई
    निज कर्मों के फल को मानूँ 
    कभी अनिष्ट ना किया प्रभुजी 
    हमें भी ये प्रण दे दो ना !
    दे दो ना !।।
    जग में तुझसा कोई ना 

    कभी छोडू ना तेरा दामन 
    तेरी शरण में मेरा पालन 
    घन-सम दया-दृष्टि बरसा दे
    या तो सीख तुम्हीं से लेंगे 
    या प्राणों से प्रीति ना
    प्रीति ना 
    जग में तुझसा कोई ना 
    कर जोड़ आए 
    तेरी शरण प्रभु 
    कर तू दया 
    दु:ख के हर्ता, 
    दु:खहर्ता
    जग में तुझसा कोई ना 

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :--   

    राग :- मिश्र पहाड़ी
    गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा

    शीर्षक :- तू कामनाओं का दाता है 🎧 वैदिक भजन 746 वां🌹👏🏽
    *तर्ज :- *
    00148-748 

    पावनी = पवित्र करने वाली
    अनिष्ट = अशुभ, अमंगल,बुरा
    घन-सम = बादल की तरह
     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    तू कामनाओं का दाता है

    भगवन्!हम तेरे पास आए हैं। रिक्तहस्त आये हैं। तुझसे बात करने का क्या अधिकार! प्रभो! (अभि त्वामिन्द्र नोनुम: ऋग्वेद 8. 21.5)हम झुक-झुककर बार-बार तुझे नमस्कार करते हैं और दीनबन्धो! (वयं हि त्वा बन्धुमन्तमबन्वो विप्रास इन्द्र येमिम ऋग्वेद ८. २१.४)हम बन्धु- रहित हैं, बन्धुओं के बन्धु तुझको हम अपनाते हैं, अतः हम इस नए सम्बन्ध को सामने रखकर (त्वैना नमसा वदामसि) यानी इस नमस्कार द्वारा तुझसे बोलते हैं। इस नमस्कार से हमें तुझसे बोलने का अपनी व्यथा-कथा सुनाने का अधिकार मिल जाता है।
    प्रभो! क्या सोचते हो ? मुझमें अहंकार है। ना,मेरे स्वामिन्! नमस्कार से मैंने अहंकार को मार दिया है। नम्र होकर तेरे दरबार में आया हूं। क्यों आया हूं? अन्तर्यामिन् ! तू हमारे (विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्) यानी सारे विचारों आचारों का जाननेहारा है। तुझसे मेरा क्या छिपा है ? फिर भी निवेदन करता हूं-- सन्ति कामास: हरिव:) यानी पापहारक प्यारे ! हमारी कामनाएं हैं, इच्छाएं हैं और (ददिष्ट्वम्) तू दाता हैं। याचक दाता के पास ना जाए तो कहां जाए? तूने ही कहा है-- (न सखा यो न जाति सख्ये सचाभुवे सचमानाय पित्व) ऋग्वेद १०.११७. ४) वह मित्र नहीं जो साथ रहने वाले अन्न मांगने वाले मित्र को नहीं देता है। सखे! मैं तेरे साथ रहता हूं। ऐसा साथ कि जिसे तू कभी भी नहीं छोड़ सकता। प्रभो! साहस है, तो छोड़कर दिखा दो। फिर तू क्यों नहीं देता ? दात:! अपने विरुद को अर्थात् कीर्ति को सार्थक कर। तेरी शोभा इसी में है कि याचक की झोली भर दे। क्या तेरे द्वार से लौट जाएं? तूने ही कहा है कि-- जो नहीं देता,उसके (अपा स्मात्प्रेयात् ऋग्वेद १०.११७.४)  यानी यहां से भाग जाए। परन्तु मैं कहां जाऊं? किधर जाऊं? तू कहता है--(न तदोको अस्ति ऋग्वेद १०.११७.४) यानी अदाता का घर घर नहीं है । निसन्देह यह बात सत्य है की दाता का घर घर नहीं है, किन्तु तुम चाहे मुझे दो या ना दो, मेरे तो तुम ही घर हो। अपना घर छोड़कर कहां जाऊं? कहते हो कि-- (पृणन्तमन्यमरणं  चिदिच्छेत् )ऋग्वेद १०.११७.४) यानी किसी और दाता की खोज करो। मैं और को क्यों खोजूं? क्यों चाहूं? तुम जैसा कोई दाता  हो भी! मेरे लिए ही नहीं, समस्त जगत का तू ही दाता है और फिर(भद्रा इन्द्रस्य रातय: ऋग्वेद ८.६२.१) यानी तेरे दान भले हैं। दूसरे के दानों का ज्ञान नहीं। जाने रोटी मांगने पर सोटी याने पत्थर ही दे मारे। तू किसी भी अवस्था में अनिष्ट नहीं कर सकता अतः नाथ तुझे छोड़ कर हम कहीं नहीं जाते। यहीं बैठे हैं। स्मो वयं सन्ति नो धिय:) यानी यहां हम हैं और ये हैं हमारी बुद्धियां, कृतियां। तू हमारे कर्मों के अनुसार ही दे। हम इसे भी तेरा दान समझते हैं। तू ना दे तो हमारा क्या मान? किन्तु तेरे द्वार पर धरना देने का अधिकार हम नहीं छोड़ सकते, अतः निश्चय कर लिया है कि या तो तुझसे लेकर जाएंगे या अपने प्राण तुझे दे देंगे। दोनों अवस्थाओं में हमें लाभ ही लाभ है, अतः पर्जन्य इन ततनद्धिवृष्टया सहस्त्रमयुता ददत् --ऋग्वेद ८.२१.१८ )यानी हजारों-लाखों देता हुआ प्रभो! बादल की भांति वृष्टि के साथ गरज। महादानी, गरज! बरस,बरस! भिगो दे हमें । तर कर दे,तृप्त कर दे। कहीं से भी सूखा ना रहने दे।( तू भूरिदा श्रुत) बड़ा दाता प्रसिद्ध है।

    🕉🧘‍♂️ईश भक्ति भजन
    भगवान् ग्रुप द्वारा🌹 🙏
    🕉🧘‍♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएँ🙏💕
     

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    विषय

    स्तवन द्वारा दीप्ति की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (त्वा) = आपके (अच्छ) = प्रति (एना नमसा) = इस नमन के द्वारा (वदामसि) = स्तुति-वचनों का उच्चारण करते हैं (च) = और (मुहुः चित्) = फिर भी आप (किं विदीधयः) = कुछ अद्भुत ही प्रकार से हमारे जीवनों में दीप्त करते हो। हम आपका स्तवन करते हैं, आप हमें दीप्त जीवनवाला बनाते हो। [२] हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (कामासः सन्ति) = हमारी नाना प्रकार की कामनायें हैं और (त्वं ददिः) = आप सदा देनेवाले हैं, देना आपका स्वभाव ही है। इसलिए (वयं स्मः) = हम आपके सान्निध्य में हैं और (नः धियः सन्ति) = हमारी बुद्धियाँ हैं। आपकी समीपता से दूर होने पर ही बुद्धि का भ्रंश हुआ करता है। आपके समीप रहते हुए हम प्रशस्त बुद्धिवाले ही बने रहें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम नम्रता से प्रभु का स्तवन करते हैं, प्रभु हमारे जीवनों को दीप्त बनाते हैं। प्रभु ही हमारी सब कामनाओं को पूर्ण करते हैं। हम प्रभु के समीप रहते हैं, प्रभु हमें बुद्धि प्राप्त कराते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Profusely with this salutation and homage, we honour and praise you and pray to you again and again. Why do you hesitate, in thought? O lord of the moving world, we have our desires and ambitions. You are the giver of fulfilment. We are here, our prayers are here, and we are yours. We have our thoughts and intelligence too, hence we pray: Grant our prayers without delay.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाच्या अंत:करणात अनेक कामना असतात. हितकारक व शुभ कामनांना ईश्वर पूर्ण करतो. ॥६॥

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