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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 14
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    उपो॒ हरी॑णां॒ पतिं॒ दक्षं॑ पृ॒ञ्चन्त॑मब्रवम् । नू॒नं श्रु॑धि स्तुव॒तो अ॒श्व्यस्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उपो॒ इति॑ । हरी॑णाम् । पति॑म् । दक्ष॑म् । पृ॒ञ्चन्त॑म् । अ॒ब्र॒व॒म् । नू॒नम् । श्रु॒धि॒ । स्तु॒व॒तः । अ॒श्व्यस्य॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपो हरीणां पतिं दक्षं पृञ्चन्तमब्रवम् । नूनं श्रुधि स्तुवतो अश्व्यस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपो इति । हरीणाम् । पतिम् । दक्षम् । पृञ्चन्तम् । अब्रवम् । नूनम् । श्रुधि । स्तुवतः । अश्व्यस्य ॥ ८.२४.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I reach the lord protector and controller of the moving worlds, the omnipotent who enjoins the soul with the world of nature, and I closely whisper in prayer: Listen to the celebrant devotee who is keen to move from humanity to divinity and deserves to be accepted.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे ईश्वरासंबंधी काव्याचे सृजन करतात त्याचे तत्त्व जाणतात तेच येथे ऋषी म्हणविले जातात. ते जितेंद्रिय असल्यामुळे अश्व्य (ईश्वराकडे जाणारे व स्तुती करणारे ऋषी ) म्हणविले जातात. ॥१४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तदनुवर्तते ।

    पदार्थः

    अहमुपासकः । हरीणाम्=परस्परहरणशीलानां जगताम् । पतिम्=पालकम् । दक्षम्=प्रवर्धकम् । पृचन्तम्=मिश्रयन्तम् । ईशम् । उपो+अब्रवम्=उपेत्य ब्रवीमि । हे भगवन् ! त्वं हि । स्तुवतः=स्तुतिं कुर्वतः । अश्व्यस्य=ऋषेः । नूनं स्तोत्रम् । श्रुधि=शृणु ॥१४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    मैं उपासक (हरीणाम्) परस्पर हरणशील जगतों का (पतिम्) पालक (दक्षम्) परमबलधारक (पृचन्तम्) प्रकृति और जीव को मिलानेवाले परमेश्वर के (उपो+अब्रवम्) समीप पहुँच निवेदन करता हूँ कि हे भगवन् ! तू (स्तुवतः) स्तुति करते हुए (अश्व्यस्य) ईश्वर की ओर जानेवाले ऋषि के स्तोत्र को (नूनम्+श्रुधि) निश्चित रूप से सुन ॥१४ ॥

    भावार्थ

    जो ईश्वरसम्बन्धी काव्यों को बनाते और उसके तत्त्वों को समझते हैं, वे ही यहाँ ऋषि कहाते हैं । वे जितेन्द्रिय होने के कारण अश्व्य कहाते हैं ॥१४ ॥

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    विषय

    उसकी नाना प्रकार से उपासनाएं वा भक्तिप्रदर्शन और स्तुति ।

    भावार्थ

    मैं ( हरीणां पतिम् ) सूर्य, चन्द्रादि लोकों, और मननशील पुरुषों के पालक, ( दक्षम् ) सब पापों के भस्म करने वाले, वा कर्म करने वाले ( पृञ्चन्तम् ) सब के स्नेही, प्रभु को लक्ष्य करके ( उप ब्रवम् उ ) उपासना, प्रार्थना करता हूं। ( नूनं ) अवश्य, निश्चय करके ( अश्व्यस्य ) इन्द्रियों के द्वारा सुख दुःखों के भोक्ता, वा मन, इन्द्रियादि के स्वामी ( स्तुवतः ) स्तुतिकर्ता जीव की तू ( श्रुधि ) प्रार्थना को श्रवण कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    स्तुति करता हुआ 'अश्व्य'

    पदार्थ

    [१] मैं (हरीणां पतिम्) = सब दुःखों का हरण करनेवाले इन्द्रियाश्वों के स्वामी, (दक्षम्) = हमारे बलों का वर्धन करनेवाले (पृञ्चन्तम्) = सर्वत्र सम्पृक्त, सर्वव्यापक प्रभु का (उ) = निश्चय से (उप अब्रवम्) = समीपता से उच्चारण करूँ, प्रभु के गुणों का गायन करूँ। [२] हे प्रभो ! आप स्तुवतः स्तुति करते हुए (अश्वस्य) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले की स्तुति को (नूनम्) = निश्चय से (श्रुधि) = सुनिये। जो भी व्यक्ति इन्द्रियाश्वों को उत्तम बनाता है, उसके स्तुति वचनों को प्रभु अवश्य सुनते हैं । इन्द्रियों को उत्तम बनाने के लिये जो यत्नशील नहीं, उसका स्तवन व्यर्थ ही है।

    भावार्थ

    भावार्थ-स्तोता के इन्द्रियाश्वों को प्रभु उत्तम बनाते हैं। उसके बल का वर्धन करते हैं। उसके साथ प्रभु का सम्पर्क बढ़ता है। हम इन्द्रियाश्वों को उत्तम बनाने के लिये यत्नशील हों, तभी हमारा स्तवन सार्थक होगा।

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