ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 18
तं वो॒ वाजा॑नां॒ पति॒महू॑महि श्रव॒स्यव॑: । अप्रा॑युभिर्य॒ज्ञेभि॑र्वावृ॒धेन्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वः॒ । वाजा॑नाम् । पति॑म् । अहू॑महि । श्र॒व॒स्यवः॑ । अप्रा॑युऽभिः । य॒ज्ञेभिः॑ । व॒वृ॒धेन्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वो वाजानां पतिमहूमहि श्रवस्यव: । अप्रायुभिर्यज्ञेभिर्वावृधेन्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । वः । वाजानाम् । पतिम् । अहूमहि । श्रवस्यवः । अप्रायुऽभिः । यज्ञेभिः । ववृधेन्यम् ॥ ८.२४.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O people we, seekers of honour and fame, invoke and adore the protector and promoter of your food, energies and victories, by assiduous congregations of yajna and thereby exalt the splendour and glory of the lord supreme.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वरालाच सगळीकडे पूजतात. विद्वान अथवा मूर्ख यज्ञाद्वारे त्याचेच महत्त्व दर्शवितात. ॥१८॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदनुवर्तते ।
पदार्थः
श्रवस्यवः=कीर्त्त्यन्नकामा वयमुपासकाः । हे मनुष्याः ! वः=युष्माकमस्माकं सर्वेषाञ्च । पतिं तमिन्द्रम् । अहूमहि=आह्वयामः । कीदृशम् । वाजानां पतिम् । अप्रायुभिः=प्रमादरहितैः पुरुषैः । यज्ञेभिः=यज्ञैश्च । वावृधेन्यम्=वर्धनीयञ्च ॥१८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यों ! (श्रवस्यवः) कीर्ति और अन्न इत्यादि वस्तु की कामना करनेवाले हम उपासकगण (वः) तुम्हारे और हमारे और सबके (पतिम्) पालक उस परमात्मा की (अहूमहि) स्तुति करते हैं, जो (वाजानाम्) समस्त सम्पत्तियों और ज्ञानों का (पतिम्) पति है और जिसको (अप्रायुभिः) प्रमादरहित पुरुष (यज्ञेभिः) यज्ञों से (वावृधेन्यम्) बढ़ाते हैं, उसकी कीर्ति को गाते हैं ॥१८ ॥
भावार्थ
उसी को चारों तरफ पूज रहे हैं, विद्वान् या मूर्ख, यज्ञों के द्वारा उसी का महत्त्व दिखला रहे हैं ॥१८ ॥
विषय
उसकी नाना प्रकार से उपासनाएं वा भक्तिप्रदर्शन और स्तुति ।
भावार्थ
( अप्रायुभिः ) आयु से रहित दीर्घायु वा अप्रमादी पुरुषों और ( यज्ञेभिः ) यज्ञों, उपासनादि सत्कर्मों से ( वावृधेन्यम् ) अति वृद्धिशील, ( वाजानां पतिम् ) आप सबके ज्ञान, ऐश्वर्यादि के पालक उसको (नः) हम ( अवस्यवः ) ज्ञान, कीर्त्ति और अन्नादि के इच्छुक होकर ( अहूमहि ) पुकारते, उसीकी उपासना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'शक्तियों के स्वामी- यज्ञों से वर्धनीय' प्रभु
पदार्थ
[१] (श्रवस्यवः) = ज्ञान व यश की कामनावाले हम (तम्) = उस (वः) = तुम सब के (वाजानाम्) = बलों के (पतिम्) = स्वामी प्रभु को (अहूमहि) = पुकारते हैं। प्रभु हमारी सब इन्द्रियों के बल का वर्धन करके हमारे ज्ञान व शक्ति का वर्धन करते हैं। इस प्रकार हमारा जीवन यशस्वी बनता है। [२] हम उस प्रभु को पुकारते हैं जो (अप्रायुभिः) = प्रमाद से रहित (यज्ञेभिः) = यज्ञों से (वावृधेन्यम्) = वर्धनीय हैं। जब हम प्रमादशून्य होकर यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं, तो प्रभु का प्रकाश हमारे में निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सब शक्तियों के स्वामी हैं। यज्ञों के द्वारा प्रभु का प्रकाश हमारे में होता है। इस प्रभु को ज्ञानी व यशस्वी बनने के लिये हम पुकारते हैं।
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