ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 21
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
यस्यामि॑तानि वी॒र्या॒३॒॑ न राध॒: पर्ये॑तवे । ज्योति॒र्न विश्व॑म॒भ्यस्ति॒ दक्षि॑णा ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । अमि॑तानि । वी॒र्या॑ । न । राधः॑ । परि॑ऽएतवे । ज्योतिः॑ । न । विश्व॑म् । अ॒भि । अस्ति॑ । दक्षि॑णा ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यामितानि वीर्या३ न राध: पर्येतवे । ज्योतिर्न विश्वमभ्यस्ति दक्षिणा ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । अमितानि । वीर्या । न । राधः । परिऽएतवे । ज्योतिः । न । विश्वम् । अभि । अस्ति । दक्षिणा ॥ ८.२४.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 21
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Let us sing in adoration of Indra whose wondrous deeds of divinity are unbounded, whose potential is unrestricted, and whose generosity radiates over the world like the light of the sun.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याचे बल, वीर्य्य व दान अनंत आहेत तोच मानव जातीचा उपास्य इष्ट देव आहे. ॥२१॥
संस्कृत (1)
विषयः
तस्य महत्त्वं दर्शयति ।
पदार्थः
हे मनुष्याः ! यस्य । वीर्य्या=वीर्य्याणि । अमितानि=अपरिमितानि निरवधीनि अहिंस्यानि च सन्ति । यस्य । राधः=धनम् । पर्य्येतवे=पर्य्येतुम्=परिच्छेत्तुम् । न शक्यते । यस्य । दक्षिणा=दानम् । विश्वम्=सर्वम् । अभ्यस्ति=व्याप्नोति । अत्र दृष्टान्तः । ज्योतिर्न=ज्योतिः सूर्य्यादिः । तद्वत् ॥२१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
उसका महत्त्व दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे मनुष्यों ! (यस्य+वीर्य्याः) जिसके वीर्य्य अर्थात् कर्म (अमितानि) अपरिमित अनन्त और अहिंस्य हैं, (यस्यः+राधः) जिसकी सम्पत्ति (पर्य्येतवे+न) परिमित नहीं, (दक्षिणा) जिसका ज्ञान (विश्वम्+अभ्यस्ति) सर्वत्र फैला हुआ है, (ज्योतिः+न) जैसे सूर्य्य की ज्योति सर्वत्र फैली हुई है ॥२१ ॥
भावार्थ
जिसके बल, वीर्य्य और दान अनन्त हैं, वही मनुष्य-जाति के उपास्य इष्टदेव हैं ॥२१ ॥
विषय
उसकी नाना प्रकार से उपासनाएं वा भक्तिप्रदर्शन और स्तुति ।
भावार्थ
(यस्य) जिसके ( वीर्या अमितानि) वीर्य अपरिमित हैं और ( राधः ) जिसके धनैश्वर्य ( पर्येतवेन ) पूर्णतया जाने नहीं जा सकते और ( यस्य दक्षिणा ) जिसका बल और दान भी ( ज्योतिः न ) सूर्य प्रकाश के समान ( विश्वम् अभि अस्ति) सबके प्रति समान रूप से प्राप्त है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अनन्त 'वीर्य - ऐश्वर्य-ज्ञान व दान' वाले प्रभु
पदार्थ
[१] (यस्य) = जिस प्रभु के (वीर्या) = वृत्रवध आदि पराक्रम के कार्य (अमितानि) = अगणित हैं, अपरिमित हैं, अनन्त शक्तिवाले वे प्रभु हैं। उस प्रभु का (राधः) = ऐश्वर्य (पर्येतवे न) = चारों ओर से घेरे जाने योग्य नहीं है। अनन्त है उस प्रभु का ऐश्वर्य। [२] (ज्योतिः न) = प्रकाश की तरह (दक्षिणा) = उस प्रभु का दान भी (विश्वम्) = सम्पूर्ण संसार को (अभ्यस्ति) = अभिभूत करनेवाला है। उस प्रभु की ज्योति व उस प्रभु का दान निरतिशय है, सर्वातिशायी है, सब से अधिक है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का पराक्रम व ऐश्वर्य अनन्त है। वे प्रभु अपनी ज्योति व अपने दान से सभी को अभिभूत करनेवाले हैं।
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