ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 23
ए॒वा नू॒नमुप॑ स्तुहि॒ वैय॑श्व दश॒मं नव॑म् । सुवि॑द्वांसं च॒र्कृत्यं॑ च॒रणी॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । नू॒नम् । उप॑ । स्तु॒हि॒ । वैय॑श्व । द॒श॒मम् । नव॑म् । सुऽवि॑द्वांसम् । च॒र्कृत्य॑म् । च॒रणी॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा नूनमुप स्तुहि वैयश्व दशमं नवम् । सुविद्वांसं चर्कृत्यं चरणीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठएव । नूनम् । उप । स्तुहि । वैयश्व । दशमम् । नवम् । सुऽविद्वांसम् । चर्कृत्यम् । चरणीनाम् ॥ ८.२४.२३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 23
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O child of the holy sage of mental and moral discipline, verily worship Indra only, the lord ever new though eternal, worshipped as the tenth supreme over all among humans, lord omniscient solely worthy of the worship of dynamic humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वरच सर्वांचा पूज्य व स्तुत्य आहे ॥२३॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदनुवर्तते ।
पदार्थः
हे वैयश्व=हे जितेन्द्रिय ऋषे ! नूनमिदानीम् । इन्द्रमेव । उपस्तुहि । कीदृशम् । दशमम्=दशसंख्यापूरकम् । शून्याधीना यथा सर्वा संख्या । तद्विना गणितशास्त्रमपि व्यर्थतां प्राप्नुयात् । तद्वत् । अथवा । नवानाम्=प्राणानाम् । दशमम्= दशसंख्यापूरकम् । यद्वा । दशमं वारमपि । स्तुतः पूजितश्च सन् । नवः=नव एव भवति । भूयोभूयः पूजितोऽपि नूतन एव प्रतिभाति । पुनः । नवम्=नूतनम्=सदैकरसम् । सुविद्वांसम् । पुनः । चरणीनाम्=मनुष्याणाम् । चर्कृत्यम्=भूयोभूयः सर्वैः शुभकार्य्येषु नमस्कर्तव्यम् ॥२३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
(वैयश्व) हे जितेन्द्रिय ऋषे ! (नूनम्) इस समय (एव) उस परमात्मा की ही (उपस्तुहि) मन से समीप में पहुँच स्तुति करो, जो (दशमम्) दशसंख्यापूरक है अर्थात् जैसे शून्य के अधीन सब संख्यायें होती हैं, उसके विना गणित-शास्त्र भी व्यर्थ हो जाता, तद्वत् । अथवा शरीर में जो नव प्राण हैं, उनमें यह दशम है । यद्वा दशम बार भी स्तुत और पूजित होने पर (नवम्) नूतन ही होता है, (सुविद्वांसम्) परम विद्वान् (चरणीनाम्+चर्कृत्यम्) प्रजाओं में वारंवार नमस्कर्तव्य है ॥२३ ॥
भावार्थ
वही सबका पूज्य और स्तुत्य है ॥२३ ॥
विषय
उसकी नाना प्रकार से उपासनाएं वा भक्तिप्रदर्शन और स्तुति ।
भावार्थ
हे ( वैयश्व ) विविध अश्वों, अश्वसैन्यों वा भोक्ता शासकों से युक्त सेनापति के समान, विविध अश्वों, प्राणों के स्वामिन् ! आत्मन् ! तू ( नूनम् ) अवश्य ( दशमं ) नव प्राणों के बीच ( दशमम् ) दशवें और ( चरणीनाम् ) आचरण करने वालों में भी ( सुविद्वांसं ) उत्तम ज्ञानी विद्वान् और (चर्कृत्यं) कार्य करने वाले ज्ञानवान् कर्मवान् आत्मा की ( उप स्तुहि ) स्तुति वा उपदेश कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'दशमं नवम्' [स्तुहि]
पदार्थ
[१] (एवा) = गतिशीलता के द्वारा, स्वकर्त्तव्य कर्म में लगे रहने के द्वारा, हे (वैयश्व) = विशिष्ट इन्द्रियाश्वोंवाले स्तोता ! तू (नूनम्) = निश्चय से उपस्तुहि उस प्रभु का स्तवन कर, जो प्रभु (दशमम्) = [दश्यत्से शत्र्यवः अनेन] हमारे शत्रुओं का विध्वंस करनेवाले हैं अतएव (नवम्) = स्तुत्य हैं [नु स्तुतौ]। [२] उस प्रभु का तू स्तवन कर जो (सुविद्वांसम्) = उत्तम ज्ञानी हैं व (चरणीनाम्) = कर्त्तव्य कर्मों के आचरण में तत्पर मनुष्यों के (चर्कृत्यम्) = फिर-फिर नमस्कार करने योग्य हैं। यह प्रभु नमस्कार ही तो उन्हें शक्ति देता है।
भावार्थ
भावार्थ - उस 'शत्रु - विध्वंसक- स्तुत्य-सुविद्वान् - नमस्कर्त्तव्य' प्रभु का हम स्तवन करें। यह स्तवन ही हमें उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला व कर्त्तव्य कर्मक्षम बनायेगा ।
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