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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 27
    ऋषि: - विश्वमना वैयश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    य ऋक्षा॒दंह॑सो मु॒चद्यो वार्या॑त्स॒प्त सिन्धु॑षु । वध॑र्दा॒सस्य॑ तुविनृम्ण नीनमः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ऋक्षा॑त् । अंह॑सः । मु॒चत् । यः । वा॒ । आर्या॑त् । स॒प्त । सिन्धु॑षु । वधः॑ । दा॒सस्य॑ । तु॒वि॒ऽनृ॒म्ण॒ । नी॒न॒मः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य ऋक्षादंहसो मुचद्यो वार्यात्सप्त सिन्धुषु । वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । ऋक्षात् । अंहसः । मुचत् । यः । वा । आर्यात् । सप्त । सिन्धुषु । वधः । दासस्य । तुविऽनृम्ण । नीनमः ॥ ८.२४.२७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 27
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    English (1)

    Meaning

    To Indra, who saves from sin and violence, and releases the waters of life into the seven seas of existence, we bow and pray: O lord of the world’s wealth and power, honour and glory, strike down the fatal weapon of the saboteur and the destroyer.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेळोवेळी जी विघ्ने उत्पन्न होतात त्यांच्या विनाशासाठीही ईशच प्रार्थनीय आहे. ॥२७॥

    संस्कृत (1)

    विषयः

    विघ्नविनाशाय पुनः प्रार्थना ।

    पदार्थः

    य इन्द्रः । अस्मान् । ऋक्षात्=घातकात्=ऋक्षपशुवद् भयानकात् । अंहसः=पापात् । मुचत्=मुञ्चति यः । सप्तसिन्धुषु=सर्पणशीलासु नदीषु । वा=यद्वा । आर्य्यात्=धनं प्रेरयति । यद्वा । सप्तसिन्धुषु=शिरःसु । विज्ञानं प्रेरयति । हे तुविनृम्ण=बहुधनेन्द्र ! दासस्य=उपक्षपितुर्जनस्य बधाय । बध=हननसाधकमायुधम् । नीनमः=नमय ॥२७ ॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    विघ्नविनाश के लिये पुनः प्रार्थना ।

    पदार्थ

    (वः) जो परमात्मा हम लोगों को (ऋक्षात्+अंहसः) घातक (यद्वा) ऋक्ष पशुवत् भयानक पाप से (मुचत्) छुड़ाता है (वा) अथवा (यः) जो (सप्तसिन्धुषु) सर्पणशील नदियों के तट पर (आर्य्यात्) शोभा और सौभाग्य दिखलाता है यद्वा (सप्तसिन्धुषु) नयनादि सप्त इन्द्रिययुक्त शिर में विज्ञान देता है, वही सबका पूज्य है । (तुविनृम्ण) हे बहुधन इन्द्र ! (दासस्य) जगत् में उपद्रवकारी मनुष्य को दूर करने के लिये (वधः) हननसाधक आयुध (नीनमः) नीचे कर ॥२७ ॥

    भावार्थ

    हमारे जो समय-२ पर विघ्न उत्पन्न होते हैं, उनके विनाश के लिये भी वही प्रार्थनीय है ॥२७ ॥

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