ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 7
विश्वा॑नि वि॒श्वम॑नसो धि॒या नो॑ वृत्रहन्तम । उग्र॑ प्रणेत॒रधि॒ षू व॑सो गहि ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वा॑नि । वि॒श्वऽम॑नसः । धि॒या । नः॒ । वृ॒त्र॒ह॒न्ऽत॒म॒ । उग्र॑ । प्र॒ने॒त॒रिति॑ प्रऽनेतः । अधि॑ । सु । व॒सो॒ इति॑ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वानि विश्वमनसो धिया नो वृत्रहन्तम । उग्र प्रणेतरधि षू वसो गहि ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वानि । विश्वऽमनसः । धिया । नः । वृत्रहन्ऽतम । उग्र । प्रनेतरिति प्रऽनेतः । अधि । सु । वसो इति । गहि ॥ ८.२४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O greatest destroyer of evil and darkness, blazing bold and irresistible leader of the world, lord giver of wealth and peaceful settlement, pray sanctify all our thoughts and acts, well wishers of the world of humanity as we are, and inspire us with divine wisdom.
मराठी (1)
भावार्थ
जर आम्ही इतरांचे कल्याण करण्यात मन लावले तर अवश्य आमचे मन पवित्र होईल ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदनुवर्तते ।
पदार्थः
हे वृत्रहन्तम=हे अतिशयेन विघ्नविनाशक ! हे उग्र ! हे प्रणेतः=हे उत्कृष्टनायक ! हे वसो=वासक ! विश्वमनसः=विश्वमनसाम्=विश्वेषु सर्वेषु कल्याणं मनो ये येषामिति तेषां सर्वकल्याणकारिणाम् । नः=अस्माकम् । विश्वानि=सर्वाणि कर्माणि । धिया=मनसा । सु=सुष्ठु । अधिगहि=अधिगच्छ ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
(वृत्रहन्तम) हे अतिशय विघ्नविनाशक ! (उग्र) हे उग्र ! (प्रणेतः) हे उत्कृष्टनायक ! (वसो) हे जगद्वासक ! (विश्वमनसः+नः) सबके कल्याणकारी हम लोगों के (विश्वानि) सकल शुभ कर्मों को (धिया) ज्ञान और मन से (सु) अच्छे प्रकार (अधि+गहि) पवित्र कर ॥७ ॥
भावार्थ
यदि हम अन्यों के कल्याण करने में मन लगावें, तो अवश्य हमारा मन पवित्र होगा ॥७ ॥
विषय
शास्ता प्रभु ।
भावार्थ
हे ( वृत्र-हन्तम ) प्रकृति तत्व के संचालक, प्रवर्त्तक वा दुष्टों के नाशक, हे ( उग्र ) अति बलवन् ! हे ( प्रणेतः ) श्रेष्ठ नायक ! हे ( वसो ) जगत् को बसाने वाले ! तू ( विश्व-मनसः नः ) सबमें प्रविष्ट विश्वात्मा प्रभु के दिये हम लोगों की ( धिया ) बुद्धि कर्मानुसार ( नः अधि गहि ) हमें प्राप्त हो और हम पर शासन कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
विश्वमना
पदार्थ
[१] हे (वृत्रहन्तम) = वासनाओं का अतिशयेन विनाश करनेवाले प्रभो! आप (नः) = हमें (विश्वमनसः) = सारे विश्व के साथ जिसने अपने मन को जोड़ा हुआ है, उस पुरुष की (धिया) = बुद्धि के साथ (विश्वानि) = सब धनों को प्राप्त कराइये [ आगहि ] । हम वासनाओं से ऊपर उठकर सब के प्रति प्रीतियुक्त मनवाले होते हुए बुद्धि के साथ सब ऐश्वर्यों को प्राप्त करें। [२] हे (उग्र) = तेजस्विन्! (प्रणेतः) = प्रकृष्ट नेतृत्व को देनेवाले ! (वसो) = हमारे निवासों को उत्तम बनानेवाले प्रभो! आप हमें (सु) = अच्छी प्रकार (अधिगहि) = ग्रहण करिये, हम आपके प्रिय बन पायें |
भावार्थ
भावार्थ- वासनाओं से ऊपर उठकर हम 'विश्वमना' बनें। हम 'तेजस्वी, प्रकृष्ट नेता, हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले' प्रभु के प्रिय बनें।
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