ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 9
इन्द्र॒ यथा॒ ह्यस्ति॒ तेऽप॑रीतं नृतो॒ शव॑: । अमृ॑क्ता रा॒तिः पु॑रुहूत दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । यथा॑ । हि । अस्ति॑ । ते॒ । अप॑रिऽइतम् । नृ॒तो॒ इति॑ । शवः॑ । अमृ॑क्ता । रा॒तिः । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । दा॒शुषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र यथा ह्यस्ति तेऽपरीतं नृतो शव: । अमृक्ता रातिः पुरुहूत दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । यथा । हि । अस्ति । ते । अपरिऽइतम् । नृतो इति । शवः । अमृक्ता । रातिः । पुरुऽहूत । दाशुषे ॥ ८.२४.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord and leader of humanity, just as your power and force is irresistible and indestructible, O lord universally invoked and adored, so is your charity and magnanimity to the generous devotee unrestricted and inviolable.
मराठी (1)
भावार्थ
त्याचे बल व दान दोन्ही अविनश्वर आहेत. ॥९॥
संस्कृत (1)
विषयः
तस्य दानं दर्शयति ।
पदार्थः
हे नृतो=जगन्नर्तक ! हे पुरुहूत=पुरुभिः संपूजित ! यथा । ते=तव । शवः=शक्तिः=सामर्थ्यम् । अपरीतम्+हि+अस्ति । अविनाशितमस्ति । तथा । दाशुषे=भक्तजनं प्रति । तव । रातिर्दानमपि । अमृक्ता=अहिंसिता ॥९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
उसका दान दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(नृतो) हे जगन्नर्तक ! (पुरुहूत) बहुसम्पूजित (यथा) जैसे (ते+शवः) तेरी शक्ति (अपरीतम्+हि+अस्ति) अविनाशित अविध्वंसनीय है, वैसा ही (दाशुषे) भक्तजनों के प्रति (रातिः) तेरा दान भी (अमृक्ता) अहिंसित और अनिवारणीय है ॥९ ॥
भावार्थ
उसका बल और दान दोनों अविनश्वर हैं ॥९ ॥
विषय
सर्वसंचालक प्रभु ।
भावार्थ
हे ( नृतो ) सबको अपनी इच्छा पर नचाने या यथेच्छ संचालित करने वाले हे ( पुरुहूत ) बहुधा स्तुत्य ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( यथा ) जैसा ( ते ) तेरा ( शवः ) बल ( अपरीतं अस्ति ) अविनाशित, तुझसे कभी पृथक् नहीं होता। उसी प्रकार ( दाशुषे ) दानशील उपासक के लिये भी तेरा ( रातिः ) दान भी ( अमृक्ता ) कभी नष्ट नहीं होता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अपरीतं शवः, अमृक्ता रातिः
पदार्थ
[१] हे इन्द्र-शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! हे (नृतो) = सम्पूर्ण संसार को नृत्य करानेवाले प्रभो ! (यथा) = जैसे (ते शवः) = आपका बल (हि) = निश्चय से (अपरीतं अस्ति) = शत्रुओं से अपरिगत, अव्याप्त होता है, अर्थात् कोई भी आप के बल को अभिभूत नहीं कर पाता। उसी प्रकार (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो ! (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिये, दानशील पुरुष के लिये (रातिः) = आपका दान (अमृक्ता) = अहिंसित है। अर्थात् दानशील के लिये आपका दान सदा प्रवृत्त रहता ही है । [२] प्रभु अपने उपासक के लिये उस शक्ति को प्राप्त कराते हैं जो किसी भी शत्रु से अभिभूत नहीं होती, तथा प्रभु इस उपासक के लिये उस धन के दान को करते हैं, जो सदा होता ही रहता है। यह धन का दान कभी समाप्त नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ - उस सर्वशक्तिमान् प्रभु का बल शत्रुओं से अभिभूत नहीं होता। उस प्रभु का धन का दान दाश्वान् पुरुष के लिये सदा होता ही है।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal