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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 18
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    अज्रे॑ चिदस्मै कृणुथा॒ न्यञ्च॑नं दु॒र्गे चि॒दा सु॑सर॒णम् । ए॒षा चि॑दस्माद॒शनि॑: प॒रो नु सास्रे॑धन्ती॒ वि न॑श्यतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अज्रे॑ । चि॒त् । अ॒स्मै॒ । कृ॒णु॒थ॒ । नि॒ऽअञ्च॑नम् । दुः॒ऽगे । चि॒त् । आ । सु॒ऽस॒र॒णम् । ए॒षा । चि॒त् । अ॒स्मा॒त् । अ॒शनिः॑ । प॒रः । नु । सा । अस्रे॑धन्ती । वि । न॒श्य॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अज्रे चिदस्मै कृणुथा न्यञ्चनं दुर्गे चिदा सुसरणम् । एषा चिदस्मादशनि: परो नु सास्रेधन्ती वि नश्यतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अज्रे । चित् । अस्मै । कृणुथ । निऽअञ्चनम् । दुःऽगे । चित् । आ । सुऽसरणम् । एषा । चित् । अस्मात् । अशनिः । परः । नु । सा । अस्रेधन्ती । वि । नश्यतु ॥ ८.२७.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 18
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Even the simple path you make simpler for him, and the difficult one, easy to follow and cross over. Let the thunder arm go far off from him and fall away ineffective and be destroyed.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांपेक्षाही मननकर्ते पुरुष अधिक माननीय आहेत. त्यांना सर्व बाधांपासून वाचविणे सर्वांचे कर्तव्य आहे. कारण ते नवनवीन विद्या प्रकाशित करून लोकांवर महान उपकार करतात. ॥१८॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मननकर्ता जनो रक्षणीय इत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे विद्वांसः ! यूयम् । अस्मै=मननकर्त्रे जनाय । अज्रे+चित्=ऋजुगमनेऽपि स्थाने । न्यञ्चनम्=नितरां शोभनगमनम् । कृणुथ=कुरुत । यद्वा “ज्रि अभिभवे” परैरनभिभवनीयेऽपि शत्रुनगरे । अस्मै । न्यञ्चनं कुरुत । दुर्गे+चित् । अस्य सुसरणम् । आकुरुत । एषा+चित्=ईश्वरीयाप्येषा । अशनिः=वज्रम् । अस्माज्जनात् । परः=परस्ताद् । भवतु । तु=पश्चात् । साशनिः । अस्रेधन्ती=अहिंसन्ती सती । विनश्यतु ॥१८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मननकर्ता जन सदा रक्षणीय है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! आप सब मिलकर (अस्मै) जो सदा ईश्वरीय विभूतियों के मनन में लगा हुआ है, उस इस विज्ञानी के लिये (अज्रे+चित्) सरल मार्ग में भी (न्यञ्चनम्+कृणुथ) नीचा न बनावें अथवा (अज्रे+चित्) जिस नगर में कोई नहीं जा सकता, वहाँ भी इसके गमन का मार्ग बनावें । (दुर्गे+चित्) अरण्य समुद्र आदि जो दुर्गमनीय स्थान हैं और राजकीय प्राकार आदि जो अगम्य स्थान हैं, वहाँ भी (सुसरणम्) इसका सुगमन (आ) अच्छे प्रकार करावें (एषा+अशनिः+चित्) यह ईश्वरीय वज्रादिक आयुध भी (अस्मात्) इस जन से (परः) दूर जाकर गिरे (नु) और पश्चात् (सा+अस्रेधन्ती) वह किसी की हिंसा न करती हुई अशनि (विनश्यतु) विनष्ट हो जाए ॥१८ ॥

    भावार्थ

    विद्वानों से भी मननकर्ता पुरुष अधिक माननीय हैं, उनको सर्व बाधाओं से बचाना सबका कर्तव्य है, क्योंकि वे नूतन-२ विद्या प्रकाशित कर लोगों का महोपकार करते हैं ॥१८ ॥

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    विषय

    राष्ट्र के प्रति उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    आप लोग ( अस्मै ) इस राष्ट्र वा जनलोक के हितार्थं हे विद्वानो ! वीर जनो ! ( अज्रे चित् ) न पराजित होने योग्य, शत्रु सैन्य, वा शत्रु नगर में भी ( नि-अञ्चनं कृणुथा ) नित्य आया जाया करो। और ( अस्मत् ) इस रक्षा योग्य जन से ( अशनिः ) विद्युत्वत् घातक शस्त्र अस्त्रादि वा ( अशनिः ) मार कर खाजाने वाली क्षुधा, वा महामारी आदि फैलने वाली विपत्ति भी ( सास्त्रेधन्ती ) विनाश करती हुई बला, ( परः विनश्यतु ) दूर चली जाय।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अज्र में न्यञ्चन, दुर्ग में सुसरण

    पदार्थ

    [१] (अस्मै) = इस गत मन्त्र में वर्णित 'अर्यमा, मित्र व वरुण' के उपासक के लिये (अने चित्) = युद्ध क्षेत्रों में भी (न्यञ्चनम्) = नितरां गमन को (कृणुथा) = करते हो। [अज्र = field] यह अर्यमा आदि का उपासक काम-क्रोध-लोभ से सदा संग्राम करता हुआ विजयी बनता है। और इसके लिये, हे अर्यमा आदि देवो! आप (दुर्गे चित्) = बड़े दुःख से गन्तव्य मार्गों में भी (आसुसरणम्) = समन्तात् सुगमता से गति को सिद्ध करते हो। [२] (एषा अशनिः) = यह शत्रु प्रयुक्त वज्र तो (अस्मात्) = इस से (नु) = निश्चय से (परा उ) = दूर ही रहता है। (सा) = वह शत्रु प्रयुक्त (अशनि अस्त्रेधन्ती) = किसी भी प्रकार से इसका हिंसन न करती हुई (विनश्यतु) = नष्ट हो जाये।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'अर्यमा, मित्र व वरुण' का उपासक युद्ध भूमियों में शत्रुओं को कुचलता हुआ गमन करता है। दुर्गों में भी सुगमता से आगे बढ़ता है। इस पर शत्रुओं के वज्र का आक्रमण नहीं होता। यह वज्र किसी का हिंसन न करता हुआ विनष्ट हो जाता है।

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