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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 19
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    यद॒द्य सूर्य॑ उद्य॒ति प्रिय॑क्षत्रा ऋ॒तं द॒ध । यन्नि॒म्रुचि॑ प्र॒बुधि॑ विश्ववेदसो॒ यद्वा॑ म॒ध्यंदि॑ने दि॒वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒द्य । सूर्यः॑ । उ॒त्ऽय॒ति । प्रिय॑ऽक्षत्राः । ऋ॒तम् । द॒ध । यत् । नि॒ऽम्रुचि॑ । प्र॒ऽबुधि॑ । वि॒श्व॒ऽवे॒द॒सः॒ । यत् । वा॒ । म॒ध्यन्दि॑ने । दि॒वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदद्य सूर्य उद्यति प्रियक्षत्रा ऋतं दध । यन्निम्रुचि प्रबुधि विश्ववेदसो यद्वा मध्यंदिने दिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अद्य । सूर्यः । उत्ऽयति । प्रियऽक्षत्राः । ऋतम् । दध । यत् । निऽम्रुचि । प्रऽबुधि । विश्वऽवेदसः । यत् । वा । मध्यन्दिने । दिवः ॥ ८.२७.१९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 19
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Omnipresent Vishvedevas in command of the world’s wealth, honour and knowledge, whether it is the time of sun-rise or sunset or the early dawn or middle of the day, hold on to the law of universal truth. You are the committed lovers of strength.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तीच शक्ती किंवा बल असते, ज्यामुळे प्रजेचे उत्तम लाभदायक कार्य होईल. तेच धन खरे असते, ज्यामुळे सर्वांवर उपकार होतात. पुष्कळ लोक एखाद्या विशेष स्थानी, विशेष पात्रात व निश्चित तिथीमध्येच दान इत्यादी उपकार करू इच्छितात, पण वेद भगवान म्हणतात की उपकाराची कोणतीही निश्चित वेळ नसते. ॥१९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    उपकाराय न कालनियमोऽस्तीत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे प्रियक्षत्राः=प्रियबला दयालवः ! हे विश्ववेदसः=सर्वधना विद्वांसः ! यूयम् । यद्=यद्वा । अद्य=अस्मिन् काले । यद्वा । सूर्य्ये । उद्यति सति । यद्=यद्वा । निम्रुचि=सायंकाले । यद्वा । प्रबुधि=प्रबोधे प्रातःकाले । यद्वा दिवो मध्यन्दिने । ऋत्यम्=सत्यनियमं सत्योपदेशं सत्यमार्गमित्येवंविधं वस्तु प्रजासु । दध=धत्त=स्थापयत ॥१९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    उपकार के लिये कालनियम नहीं, इससे यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (प्रियक्षत्राः) हे प्रियबल, हे कृपालु (विश्ववेदसः) हे सर्वधन विद्वानो ! (अद्य) इस क्षण (यद्) यद्वा (सूर्य्ये+उद्यति) सूर्य्य के उदय होने पर प्रातःकाल (यद्) यद्वा (निम्रुचि) सूर्य्यास्तवेला में (प्रबुधि) प्रबोधकाल या अति प्रातःसमय (दिवः) यद्वा दिन के (मध्यन्दिने) मध्यसमय में अर्थात् किसी समय में आप प्रजाओं में (ऋतम्+दध) सत्यता की स्थापना कीजिये ॥१९ ॥

    भावार्थ

    शक्ति वा बल वही है, जिससे प्रजा के उत्तम लाभदायी कार्य हों । धन भी वही है, जिस से सर्वोपकार हो । बहुत लोग किसी विशेष स्थान में, विशेष पात्र में और नियत तिथि में ही दानादि उपकार करना चाहते हैं, परन्तु वेदभगवान् कहते हैं कि उपकार का कोई समय नियत नहीं ॥१९ ॥

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    विषय

    राष्ट्र के प्रति उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जिस प्रकार ( दिवः निम्रुचि ) सूर्य के अस्त काल में, ( प्रबुधि ) प्रबोध या उदयकाल में ( यद्वा ) अथवा ( मध्यंदिने ) मध्यान्ह में भी सूर्य की किरणें ( ऋतं दधे ) तेज को धारण किये ही रहती हैं उसी प्रकार हे ( विश्व-वेदसः ) वा समस्त धनों और ज्ञानों के स्वामियो ! हे विद्वानो और वीर पुरुषो ! आप लोग भी ( प्रियक्षत्राः ) 'क्षत्र' अर्थात् बल वीर्य, जल अन्नादि के प्रिय, तदभिलाषी जनो! आप लोग भी ( अद्य ) आज ( सूर्ये ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष के अधीन वा ज्ञान के सूर्यवत् प्रकाशक आचार्य के (उद्-यति) उदय होने वा उत्तम यत्नवान् होने पर आप लोग ( नि-म्रुचि ) निम्न गति, विनयशील होने पर सूर्यास्त होने के काल में ( प्रबुधि ) प्रबोध काल में, वा सूर्योदय काल में, ( यद्वा ) अथवा ( मध्यन्दिने ) मध्याह्न काल में ( ऋतं दूध ) ऋत अर्थात् सत्य न्याय, वेद, तेज और अन्न को धारण करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रियक्षत्रों का ऋतधारण

    पदार्थ

    [१] हे (प्रियक्षत्राः) = प्रीणवितृ बलवाले, जो बल के द्वारा रक्षणात्मक कार्यों को ही करते हैं, ऐसे देवो ! (यत्) = जब (अद्य) = आज (सूर्ये उद्यति) = सूर्य के उदय होने का समय हो, उस समय (ऋतं दध) = ऋत का धारण करो। ऋत के धारण व अनृत के परित्याग के व्रत का धारण करो । 'जो ठीक है, वही मैं करूँगा' ऐसा निश्चय करो। [२] हे (विश्ववेदसः) = सम्पूर्ण धनों व ज्ञानोंवाले देवो ! आप (यत्) = जब (निम्रुचि) = सूर्य के निम्रोचन का अस्त होने का समय हो, (प्रबुधि) = उदय का समय हो, (यद्वा) = अथवा जब (दिवः मध्यन्दिने) = दिन के मध्य का समय हो, उस समय आप हमारे में ऋत का धारण करो । सब देवों के अनुग्रह से हम ऋत का धारण करनेवाले बनें। यही सम्पूर्ण धनों व ज्ञानों को प्राप्त करने का मार्ग है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम रक्षक बलवाले बनते हुए सूर्योदय के समय ही 'ऋत' के धारण का व्रत लें। सब देव प्रातः, मध्याह्न व सायं हमारे अन्दर ऋत को स्थापित करने का अनुग्रह करें। ऋत का धारण ही हमें ज्ञानी व धनी बनायेगा।

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