ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - शङ्कुम्मतीबृहती
स्वरः - मध्यमः
प्र सू न॑ एत्वध्व॒रो॒३॒॑ऽग्ना दे॒वेषु॑ पू॒र्व्यः । आ॒दि॒त्येषु॒ प्र वरु॑णे धृ॒तव्र॑ते म॒रुत्सु॑ वि॒श्वभा॑नुषु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु । नः॒ । ए॒तु॒ । अ॒ध्व॒रः । अ॒ग्ना । दे॒वेषु॑ । पू॒र्व्यः । आ॒दि॒त्येषु॑ । प्र । वरु॑णे । धृ॒तऽव्र॑ते । म॒रुत्ऽसु॑ । वि॒श्वऽभा॑नुषु ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सू न एत्वध्वरो३ऽग्ना देवेषु पूर्व्यः । आदित्येषु प्र वरुणे धृतव्रते मरुत्सु विश्वभानुषु ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सु । नः । एतु । अध्वरः । अग्ना । देवेषु । पूर्व्यः । आदित्येषु । प्र । वरुणे । धृतऽव्रते । मरुत्ऽसु । विश्वऽभानुषु ॥ ८.२७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
May our yajna of universal order join the fire and rise to the divinities of nature, the sun in progressive Zodiacs, the oceans of earth and space in the fixed order of cosmic law, and all the light radiations of the universe across the suns.
मराठी (1)
भावार्थ
यज्ञाचे फळ या पृथ्वीपासून सूर्यापर्यंत विस्तीर्ण व्हावे ही यात प्रार्थना आहे. ॥३॥
संस्कृत (1)
विषयः
यज्ञविस्ताराय प्रार्थयते ।
पदार्थः
हे भगवन् ! तव कृपया । नोऽस्माकम् । पूर्व्यः=पूर्णः । अध्वरः=यज्ञः । अग्ना=अग्नौ । सु=सुष्ठु । प्रैतु । देवेषु=आदित्येषु । धृतव्रते वरुणे । विश्वभानुषु= सर्वव्याप्ततेजस्केषु मरुत्सु च । प्रैतु ॥३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
यज्ञ-विस्तार के लिये प्रार्थना करते हैं ।
पदार्थ
हे भगवन् ! (नः) हमारे (पूर्व्यः+अध्वरः) पूर्ण यज्ञ प्रथम (अग्ना) तुझ में तथा (देवेषु) अन्यान्य देवों में (सु) अच्छे प्रकार (प्रैतु) प्राप्त हो और (आदित्येषु) आदित्यगणों में (धृतव्रते+वरुणे) व्रतधारी वरुण में और (विश्वभानुषु+मरुत्सु) विश्वव्यापी तेजोयुक्त वायुगणों में (प्रैतु) प्राप्त हो ॥३ ॥
भावार्थ
यज्ञ का फल इस पृथिवी से लेकर सूर्य्यपर्य्यन्त विस्तीर्ण हो, यह इससे प्रार्थना है ॥३ ॥
विषय
विद्वान् से ज्ञान की याचना।
भावार्थ
( अध्वरः ) जो हिंसारहित, नित्य, स्थायी यज्ञ ( अग्ना ) ज्ञानवान् पुरुष, अभिवत् प्रकाशस्वरूप परमेश्वर और ( देवेषु ) अग्नि, भूमि, जलादि तत्त्वों, सूर्यादि लोकों और विद्वान् दाताजनों में ( पूर्व्यः ) पूर्व भी विद्यमान होता रहा, वह (नः प्र एतु ) हमें अच्छी प्रकार, उत्तम फलदायक होकर प्राप्त हो। इसी प्रकार ( आदित्येषु ) १२हों महीनों में या पूर्ण ब्रह्मचारियों में ( धृत-व्रते ) व्रतों सत्-कर्मों के धारण व्यवस्थित करने वाले पुरुष के अधीन और ( विश्व-भानुषु ) सब तेजों, प्रकाशों को धारण करने वाले ( मरुत्सु ) विद्वान् और बलवान् पुरुषों में है वह भी ( नः प्र एतु ) हमें प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञ की महिमा
पदार्थ
[१] (नः) = हमें वह (पूर्व्यः) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम (अध्वरः) = यज्ञात्मक कर्म (प्र सु एतु) = प्रकर्षेण सम्यक् प्राप्त हो। जो यज्ञ (अग्ना) = [अग्रेणी] अग्रेणी पुरुष में होता है, निरन्तर उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवाला पुरुष जिस यज्ञ को करता है, वह यज्ञ हमें प्राप्त हो। इसी प्रकार (देवेषु) = देववृत्तिवाले पुरुष में जो यज्ञ होता है, वह यज्ञ हमें प्राप्त हो। उस यज्ञ को करते हुए हम भी देव बनें। [२] (आदित्येषु) = [आवानात् आदित्यः] सब स्थानों से अच्छाई को ग्रहण करनेवाले पुरुषों में जो यज्ञ होता है, वह हमें प्राप्त हो। इसी प्रकार (प्रधृत व्रते) = प्रकर्षेण व्रतों को धारण करनेवाले (वरुणे) = पापों से निवृत्त, निर्दोष जीवनवाले पुरुष में जो यज्ञ होता है उस यज्ञ को हम प्राप्त करें। और अन्ततः (विश्वभानुषु) = सर्वत्र प्रविष्ट तेजस्वितावाले, अंग-प्रत्यंग में तेजस्वितावाले, (मरुत्सु) = प्राणसाधक पुरुषों में जो यज्ञ होता है, वह यज्ञ हमें भी प्राप्त हो ।
भावार्थ
भावार्थ- पालक व पूरक यज्ञों को करते हुए हम 'अग्नि, देव, आदित्य, धृतव्रत वरुण व विश्वभानु मरुत्' बनें।
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