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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 14
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    वह॑न्तु त्वा रथे॒ष्ठामा हर॑यो रथ॒युज॑: । ति॒रश्चि॑द॒र्यं सव॑नानि वृत्रहन्न॒न्येषां॒ या श॑तक्रतो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वह॑न्तु । त्वा॒ । र॒थे॒स्थाम् । आ । हर॑यः । र॒थ॒ऽयुजः॑ । ति॒रः । चि॒त् । अ॒र्यम् । सव॑नानि । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । अ॒न्येषा॑म् । या । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वहन्तु त्वा रथेष्ठामा हरयो रथयुज: । तिरश्चिदर्यं सवनानि वृत्रहन्नन्येषां या शतक्रतो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वहन्तु । त्वा । रथेस्थाम् । आ । हरयः । रथऽयुजः । तिरः । चित् । अर्यम् । सवनानि । वृत्रऽहन् । अन्येषाम् । या । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ॥ ८.३३.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the motive forces which power and drive your chariot, we pray, bring you hither, O lord of infinite acts of grace, destroyer of evil and dispeller of darkness, past the acts and voices of others without faith in divinity and prayer.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आपल्या इंद्रियांना नियंत्रित करून समर्थ माणूस सुखपूर्वक जीवननिर्वाह करू शकतो. ज्याची इन्द्रिये त्याच्या ताब्यात नाहीत त्याचे सामर्थ्यही व्यर्थ जाते. ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (वृत्रहन्) दिव्य आनन्द की प्राप्ति के मार्ग की बाधाओं को हटाते हुए (शतक्रतो) नानाविध संकल्प व कर्म सिद्ध करने वाले सक्षम जन! (रथेष्ठाम्) जीवनयात्रा के साधन [इन्द्रियादि सहित] शरीर रूपी रथ में अविचल बैठे हुए तुझे (रथयुजः) तेरे शरीर में एकाग्रतासहित संयुक्त (हरयः) इन्द्रिय इत्यादि ले जाने वाले उपकरण (वहन्तु) ले चलें, (या) जो (सवनानि) प्रेरणा (अन्येषाम्) दूसरों की, उन इन्द्रियादि साधनों की हैं जो तेरी या तेरे अपने वश में नहीं हैं वे तो, (अर्यं चित्) समर्थ भी तुझे--तेरे सामर्थ्य को (तिरः) तिरस्कृत करेंगे॥१४॥

    भावार्थ

    इन्द्रियों को अपने वश में करने में जो व्यक्ति समर्थ है वही सुख से जीवन बिता सकता है। जिसका इन्द्रियों आदि पर वश नहीं है, उसका सामर्थ्य भी व्यर्थ है॥१४॥

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    विषय

    बलवान् विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( वृत्रहन् ) विघ्नों के नाशक ! हे दुष्टों के दण्डकर्त्तः ! हे ( शतक्रतो ) सैकड़ों कर्म करने हारे ! हे बहुयज्ञ ! ( रथ-युजः ) रथ में नियुक्त, ( हरयः ) अश्वों के समान, राष्ट्र में नियुक्त विद्वान् जन ( रथेष्ठाम् त्वा ) रथ पर अधिष्ठाता वा स्वामी के समान विराजमान तुझ को ( या ) जो ( अन्येषां सवनानि ) अन्यों के यज्ञ वा ऐश्वर्य हैं उनको भी ( तिरः चित् आवहन्तु ) उत्तम रीति से प्राप्त करावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथि: काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ५ बृहती। ४, ७, ८, १०, १२ विराड् बृहती। ६, ९, ११, १४, १५ निचृद् बृहती। १३ आर्ची भुरिग बृहती। १६, १८ गायत्री। १७ निचृद् गायत्री। १९ अनुष्टुप्॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु प्राप्ति व यज्ञ

    पदार्थ

    [१] हे (वृत्रहन्) = वासनाओं को नष्ट करनेवाले प्रभो ! (रथयजुः) = हमारे शरीर रथ में जुते हुए (हरयः) = इन्द्रियरूप अश्व (रथेष्ठाम्) = इस शरीर रथ में स्थित, (तिरः चित्) = तिरोहित होते हुए भी, अदृश्य से होते हुए भी (अर्यम्) = स्वामी (त्वा) = आपको (आवहन्तु) = प्राप्त करायें। हमारी इन्द्रियाँ विषयों में न फँसकर आपकी ओर झुकाववाली हों। [२] हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञानोंवाले प्रभो ! हमारी इन्द्रियाँ (या) = जो (अन्येषाम्) = सामान्य पुरुषों से भिन्न विलक्षण पुरुषों के (सवनानि) = यज्ञ हैं, उन्हें [आवहन्तु=] आप्त करायें। हम भी सामान्य प्राकृत पुरुषों की तरह विषयों में न फँसे रहे। अपितु, विषयव्यावृत्त होकर यज्ञ - प्रवण बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारी इन्द्रियाँ प्रभु प्राप्ति व यज्ञों की ओर झुकाववाली हों।

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