ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 19
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अ॒धः प॑श्यस्व॒ मोपरि॑ संत॒रां पा॑द॒कौ ह॑र । मा ते॑ कशप्ल॒कौ दृ॑श॒न्त्स्त्री हि ब्र॒ह्मा ब॒भूवि॑थ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒धः । प॒श्य॒स्व॒ । मा । उ॒परि॑ । स॒म्ऽत॒राम् । पा॒द॒कौ । ह॒र॒ । मा । ते॒ । क॒श॒ऽप्ल॒कौ । दृ॒श॒न् । स्त्री । हि । ब्र॒ह्मा । ब॒भूवि॑थ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधः पश्यस्व मोपरि संतरां पादकौ हर । मा ते कशप्लकौ दृशन्त्स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ ॥
स्वर रहित पद पाठअधः । पश्यस्व । मा । उपरि । सम्ऽतराम् । पादकौ । हर । मा । ते । कशऽप्लकौ । दृशन् । स्त्री । हि । ब्रह्मा । बभूविथ ॥ ८.३३.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O man, O woman: Keep your eyes down on the earth, not up on the sky. Walk on with both the feet together (as the two wheels and the two horses draw the chariot together), Let your lower feet be not bare and exposed (cover them). Let woman be the high priest of the home yajna.$(The last three mantras describe the home- state of the social order. The husband and the wife together run the home. The husband is, or may be, the greater burden bearer, still the wife is the chief home minister, and the husband ought to realise this in love, in courtesy, in chivalry, or at least in practical wisdom. Arrogance, pride, anger, passion, all this on either’s part must be subjected to reason and respectful cooperation with mutual recognition.)
मराठी (1)
भावार्थ
यज्ञात चार ऋत्विज असतात त्यापैकी ‘ब्रह्मा’ उद्गाता इत्यादी इतर ऋत्विजांना सांगतात हे करा, ते करू नका इत्यादी. गृहस्थरूप यज्ञाची ब्रह्मा जणू स्त्रीच असते, ती कर्म करणाऱ्या शक्तिवान पुरुष - इन्द्राला जीवनयज्ञात सूचना देत असते. खाली पाहण्याचा अभिप्राय ‘विनयी’ असणे होय. वर पाहण्याचा ‘उद्धट’ असणे होय. माणसाने दोन पाय अशा सामंजस्याने चालवावे की त्यामुळे जीवनात ‘प्रगती’ व्हावी. ॥१९॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ) अर्थात् [इस गृहस्थ रूप यज्ञ में] पुरुष की सहचरी, स्त्री ही (ब्रह्मा) ब्रह्मा नामक ऋत्विक् (बभूविथ) बनी हो, तो वह कहती है कि (अधः पश्यस्व) नीचे देख (उपरि मा) ऊपर नहीं; (पादकौ) दोनों पगों को (सन्तराम्) वह संश्लिष्ट रूप से उठाकर चल। (ते) तेरे (कशप्लकौ) निम्नांग (मा दृशत) नग्न न हों॥१९॥
भावार्थ
यज्ञ के चार ऋत्विजों में से 'ब्रह्मा' उद्गाता है। वह निर्देश देता रहता है कि ऐसा करो व ऐसा न करो इत्यादि। गृहस्थ रूपी यज्ञ की ब्रह्मा तो मानो नारी ही है। वह कर्म करने के उत्तरदायी शक्तिशाली पुरुष इन्द्र-को इस जीवन-यज्ञ में परामर्श देती रहती है। नीचे देखने का अभिप्राय है 'विनयी' होना व ऊपर देखना है 'उद्धत' होना। मनुष्य दो पैरों को इस प्रकार सामञ्जस्य से बढ़ाए कि उसके जीवन में 'प्रगति' हो॥१९॥ अष्टम मण्डल में तैंतीसवाँ सूक्त व दसवाँ वर्ग समाप्त।
विषय
नारियों का चाल ढाल
शब्दार्थ
हे नारि ! (अध: पश्यस्व) नीचे देख (मा उपरि) ऊपर मत देख । (पादकौ सन्तरां हर) दोनों पैरों को ठीक प्रकार से एकत्र करके रख । (ते कशप्लकौ) तेरे कशप्लक–दोनों स्तन, पीठ और पेट, दोनों नितम्ब, दोनों जाँघें, दोनों पिण्डलियाँ और दोनों टखने (मा दृशन्) दिखाई न दें । यह सब कुछ किसलिए ? (हि) क्योंकि (स्त्री) स्त्री (ब्रह्मा) ब्रह्मा, निर्माणकर्त्री (बभूविथ) हुई है ।
भावार्थ
मन्त्र में नारी के शील का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है। प्रत्येक स्त्री को इन गुणों को अपने जीवन में धारण करना चाहिए । १. स्त्रियों को अपनी दृष्टि सदा नीचे रखनी चाहिए, ऊपर नहीं । नीचे दृष्टि रखना लज्जा और शालीनता का चिह्न है। ऊपर देखना निर्लज्जता और शालीनता का द्योतक है । २. स्त्रियों को चलते समय दोनों पैरों को मिलाकर बड़ी सावधानी से चलना चाहिए । इठलाते हुए, मटकते हुए, हाव-भावों का प्रदर्शन करते हुए, चंचलता और चपलता से नहीं चलना चाहिए । ३. नारियों को वस्त्र इस प्रकार धारण करने चाहिएँ कि उनके गुप्त अङ्ग–स्तन, पेट, पीठ, जंघाएँ, पिण्डलियाँ आदि दिखाई न दें । अपने अङ्गों का प्रदर्शन करना विलासिता और लम्पटता का द्योतक है । ४. नारी के लिए इतना बन्धन क्यों ? ऐसी कठोर साधना किसलिए ? इसलिए कि नारी ब्रह्मा है, वह जीवन-निर्मात्री और सृजनकर्त्री है । यदि नारी ही बिगड़ गई तो सृष्टि भी बिगड़ जाएगी । माताओ और बहनो ! अपने अङ्गों का प्रदर्शन मत करो ।
विषय
उत्तम स्त्री के कर्त्तव्य।
भावार्थ
स्त्री को उपदेश। हे स्त्रि ! तू ( अधः पश्यस्व ) नीचे देख, विनयशील हो। ( मा उपरि ) ऊपर मत देख, उद्धत मत हो। (पादकौ ) दोनों पैरों को ( संहरतराम् ) अच्छी प्रकार एकत्र कर रख, असभ्यता से पैर मत फैला। ( ते ) तेरे ( कशप्लकौ मा दृशन् ) टखनों को कोई भी न देखे। ऐसे विनयाचार से तू ( स्त्री हि ) स्त्री होकर भी अवश्य ( ब्रह्मा बभूविथ ) वेदवेत्ता वा पूज्य हो सकती है। इति दशमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथि: काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ५ बृहती। ४, ७, ८, १०, १२ विराड् बृहती। ६, ९, ११, १४, १५ निचृद् बृहती। १३ आर्ची भुरिग बृहती। १६, १८ गायत्री। १७ निचृद् गायत्री। १९ अनुष्टुप्॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
निरभिमानता व शालीनता [पत्नी के दो गुण]
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार स्त्री का महत्त्व अधिक है, तो भी उसे नम्र तो होना ही चाहिये। इसी में उसकी प्रतिष्ठा है। मन्त्र कहता है कि (अधः पश्यस्व) = नीचे देख (मा उपरि) = ऊपर नहीं। तेरे में अकड़ न हो। तू घर में शासन करनेवाली अवश्य है, पर तू (पादकौ) = पाँओं को संहर (तराम्) = मिलाकर रखनेवाली हो, असभ्यता से पाँव के फैला के न फिर। [२] इस प्रकार तू वस्त्रों का धारण करे कि (ते) = तेरे (कशप्लकौ) = टखने व निचले अंग (मा दृशन्) = नहीं दीखें। वस्त्रों से तू अपने को ठीक प्रकार से आवृत कर जिससे तेरे निचले अंग दिखते न रहें। वस्तुतः इस प्रकार के आचरणवाली स्त्री-स्त्री (हि) = निश्चय से गृहस्थयज्ञ में ब्(रह्मा) = ब्रह्म [ = सर्वमुख्य ऋत्विज्] बभूविथ होती है। इसी ने इस यज्ञ को निर्दोष बनाना है।
भावार्थ
भावार्थ-निरभिमान व शालीन स्त्री ही गृहस्थ यज्ञ की ब्रह्मा बनती है, गृहस्थ यज्ञ को यही निर्दोष व निर्विघ्न बनाकर पूर्ण करती है। इसे नम्र होना चाहिए, सभ्य चालवाली होना चाहिए तथा ठीक से वस्त्रों का धारण करना चाहिए।' अगले सूक्त का ऋषि 'नीपातिथि काण्व' है [नीप=deep] गम्भीरता की ओर निरन्तर चलनेवाला सदा गम्भीर विचार करनेवाला यह मेधावी [काण्व] है। यह प्रभु का उत्तम स्तवन करनेवाला बनता है, प्रभु की दीप्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। प्रभु इसे प्रेरणा देते हैं कि-
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