ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 35/ मन्त्र 20
सर्गाँ॑ इव सृजतं सुष्टु॒तीरुप॑ श्या॒वाश्व॑स्य सुन्व॒तो म॑दच्युता । स॒जोष॑सा उ॒षसा॒ सूर्ये॑ण॒ चाश्वि॑ना ति॒रोअ॑ह्न्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठसर्गा॑न्ऽइव । सृ॒ज॒त॒म् । सु॒ऽस्तु॒तीः । उप॑ । श्या॒वऽअ॑श्वस्य । सु॒न्व॒तः । म॒द॒ऽच्यु॒ता॒ । स॒ऽजोष॑सौ । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । च॒ । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्गाँ इव सृजतं सुष्टुतीरुप श्यावाश्वस्य सुन्वतो मदच्युता । सजोषसा उषसा सूर्येण चाश्विना तिरोअह्न्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठसर्गान्ऽइव । सृजतम् । सुऽस्तुतीः । उप । श्यावऽअश्वस्य । सुन्वतः । मदऽच्युता । सऽजोषसौ । उषसा । सूर्येण । च । सोमम् । पिबतम् । अश्विना ॥ ८.३५.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 35; मन्त्र » 20
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, breakers of pride and arrogance, listen to the prayer and exhortation of the scholar of solar rays who creates something new toward the improvement of life and, in unison with the sun and the dawn, support and augment his invention like a new creation completed the day before.
मराठी (1)
भावार्थ
राजपुरुषांनी पापी रोग्यांच्या स्तुती व प्रार्थनेला आभूषण समजून धारण करावे व त्यांच्याकडे लक्ष द्यावे. ॥२०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अश्विनौ राजानौ ! सुन्वतः=शुभकर्माणि कुर्वतः । श्यावाश्वस्य=मलिनेन्द्रियस्य पापरोगिणः पुरुषस्य । सुष्टुतीः=शोभनाः स्तुतीः । सर्गानिव=आभरणानीव उपसृजतं धारयतम् । शिष्टमुक्तम् ॥२० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अश्विना) हे अश्विद्द्वय अर्थात् हे राजन् ! तथा हे मन्त्रिमण्डल ! आप दोनों (सुन्वतः) शुभकर्म करते हुए (श्यावाश्वस्य) पापरोगपीड़ित जन की (सुष्टुतीः) अच्छी स्तुतियों को (सर्गान्+इव) आभरणों के समान (उपसृजतम्) हृदय में धारण कीजिये । शेष पूर्ववत् ॥२० ॥
विषय
वेद-श्रवण, सन्तानोत्पत्ति, यज्ञ, देहसयंम का उपदेश।
भावार्थ
आप दोनों शासन करने वाले (श्यावाश्वस्य) उत्तम अश्वों के स्वामी राजा वा जितेन्द्रिय विद्वान् की ( सु-स्तुती: ) उत्तम स्तुतियों और उपदेशों को ( सर्गान् इव उप सृजतम् ) आभूषणों के समान धारण करो वा जलों के समान पान करो वा उत्तम पदार्थों के समान उत्तम उपभोग करो। शेष पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१—५, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्॥ ७–९, १३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, १०—१२, १४, १५, १७ भुरिक् पंक्ति:। २०, २१, २४ पंक्ति:। १९, २२ निचृत् पंक्ति:। २३ पुरस्ता- ज्ज्योतिर्नामजगती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
सर्ग- सुष्टुति
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! आप (सर्गान्) = हमारे अन्दर दृढ़ निश्चयों को, लक्ष्य स्थान पर पहुँचने के भावों को और (इव) = इन अध्यवसायों की तरह (सुष्टुती:) = उत्तम स्तुतियों को उपसृजतम् उत्पन्न करो। शेष मन्त्र भाग मन्त्र संख्या १९ पर व्याख्यात है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्राणसाधना के द्वारा अध्यवसाय व उत्तम स्तुतिवाले बनें।
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