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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 35/ मन्त्र 22
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒र्वाग्रथं॒ नि य॑च्छतं॒ पिब॑तं सो॒म्यं मधु॑ । आ या॑तमश्वि॒ना ग॑तमव॒स्युर्वा॑म॒हं हु॑वे ध॒त्तं रत्ना॑नि दा॒शुषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्वाक् । रथ॑म् । नि । य॒च्छ॒त॒म् । पिब॑तम् । सो॒म्यम् । मधु॑ । आ । या॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् । अ॒व॒स्युः । वा॒म् । अ॒हम् । हु॒वे॒ । ध॒त्तम् । रत्ना॑नि । दा॒शुषे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्वाग्रथं नि यच्छतं पिबतं सोम्यं मधु । आ यातमश्विना गतमवस्युर्वामहं हुवे धत्तं रत्नानि दाशुषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्वाक् । रथम् । नि । यच्छतम् । पिबतम् । सोम्यम् । मधु । आ । यातम् । अश्विना । आ । गतम् । अवस्युः । वाम् । अहम् । हुवे । धत्तम् । रत्नानि । दाशुषे ॥ ८.३५.२२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 35; मन्त्र » 22
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, divine twin powers of the social order, direct the chariot hitherward, drink the honey sweets of soma distilled by us. Come, go round and come again. Praying for protection and support for advancement, I call upon you: Come and bring the jewel gifts of life for the generous yajaka.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुष रक्षणाभिलाषी व उत्कट इच्छुक प्रार्थीच्या प्रार्थनेकडे लक्ष देतात. ॥२२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अश्विना राजानौ ! स्वकीयं रथम् । अर्वागस्मदभिमुखं । नियच्छतं प्रेरयतम् । इदं सोम्यं मधु पिबतम् । अस्मान् आयातमागच्छतम् । पुनः पुनरागतमागच्छतम् । हे देवौ ! अवस्युः रक्षणकामोऽहम् । वां युवाम् हुवे । आह्वयामि । दाशुषे भक्ताय मह्यं रत्नानि रमणीयानि विज्ञानानि धत्तं दत्तमित्यर्थः ॥२२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अश्विना) हे राजन् तथा मन्त्रिवर्ग ! आप स्वकीय (रथम्) रथ को (अर्वाग्) हम लोगों की ओर (नियच्छतम्) लावें, लाकर (सोम्यम्) सोमरसयुक्त (मधु) मधु को (पिबतम्) पीवें । हे देवो ! (आयातम्) हमारी ओर आवें (आगतम्) पुनः पुनः आवें (आवस्युः) रक्षाभिलाषी (अहम्) मैं (वाम्) आप दोनों को (हुवे) बुलाता हूँ । (दाशुषे) मुझ भक्त को (रत्नानि+धत्तम्) रत्न देवें ॥२२ ॥

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    विषय

    वेद-श्रवण, सन्तानोत्पत्ति, यज्ञ, देहसयंम का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (अश्विना ) अश्व के ऊपर वश करने वाले रथी सारथीवत् जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! आप लोग ( रथं ) रथ के तुल्य रमण या सुख के साधन अपने देह और आत्मा को (अर्वाक्) अपने समक्ष (नियच्छतं) नियम में रक्खो। और (सोम्यं मधु) ओषधिरस से मिश्रित अन्न, या मधु के समान आत्मा या परमेश्वर के मधुर सुख को ( पिबतम् ) पान करो। (अहं अवस्युः वां हुवे) मैं रक्षार्थी आप दोनों को बुलाता हूं। आप दोनों (आयातम् ) आवें (गतम् ) जावें। आप दोनों ( दाशुषे ) दानशील पुरुष को नाना (रत्नानि) उत्तम रत्नादि, सुखप्रद पदार्थ ( धत्तम् ) प्रदान करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१—५, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्॥ ७–९, १३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, १०—१२, १४, १५, १७ भुरिक् पंक्ति:। २०, २१, २४ पंक्ति:। १९, २२ निचृत् पंक्ति:। २३ पुरस्ता- ज्ज्योतिर्नामजगती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अन्तर्मुखी वृत्ति व रणीय रत्नों का धारण

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (रथम्) = शरीर रथ को (अर्वाक्) = अन्तर्मुखी वृत्तिवाला बनाते हुए (नियच्छतम्) = विषय-वासनाओं में जाने से रोको। और (सोम्यम्) = सोम-सम्बन्धी (मधु) = मधु का, सारभूत वस्तु का (पिबतम्) = पान करो। हे प्राणापानो! आप (आयातम्) = हमें प्राप्त होवो । (आगतम्) = अवश्य ही प्राप्त होवो। [२] (अवस्युः) = रक्षण की कामनावाला (अहम्) = मैं (वाम्) = आप दोनों को (हुवे) = पुकारता हूँ। (दाशुषे) = आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाले मेरे लिये आप की साधना में प्रवृत्त मेरे लिये (रत्नानि) = रमणीय धनों को (धत्तम्) = धारण करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से [क] शरीर - रथ की वृत्ति अन्तर्मुखी होती है, इन्द्रियाँ विषयों में नहीं भटकती। [ख] सोम का शरीर में रक्षण होता है, [ग] रोगों से रक्षण होता है, [घ] और शरीर में रमणीय रत्नों का धारण होता है।

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