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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 39/ मन्त्र 9
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒ग्निस्त्रीणि॑ त्रि॒धातू॒न्या क्षे॑ति वि॒दथा॑ क॒विः । स त्रीँरे॑काद॒शाँ इ॒ह यक्ष॑च्च पि॒प्रय॑च्च नो॒ विप्रो॑ दू॒तः परि॑ष्कृतो॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । त्रीणि॑ । त्रि॒ऽधातू॑नि । आ । क्षे॒ति॒ । वि॒दथा॑ । क॒विः । सः । त्रीन् । ए॒का॒द॒शान् । इ॒ह । यक्ष॑त् । च॒ । पि॒प्रय॑त् । च॒ । नः॒ । विप्रः॑ । दू॒तः । परि॑ऽकृतः । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निस्त्रीणि त्रिधातून्या क्षेति विदथा कविः । स त्रीँरेकादशाँ इह यक्षच्च पिप्रयच्च नो विप्रो दूतः परिष्कृतो नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । त्रीणि । त्रिऽधातूनि । आ । क्षेति । विदथा । कविः । सः । त्रीन् । एकादशान् । इह । यक्षत् । च । पिप्रयत् । च । नः । विप्रः । दूतः । परिऽकृतः । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.३९.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 39; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Omnipresent and omniscient Agni pervades three regions of the universe wherein reside three realities worth knowing, i.e., Prakrti (nature), soul, and the Super Soul, Parameshvara. Here in He, the one by himself pure, all knowing, all vibrating like super energy of life, feeds and vitaslises thirty three divinities of nature and sustains us with all that we need and desire. May all negativities and adversities all vanish.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    त्रिधातु=पृथ्वी, अंतरिक्ष व द्यूलोक हे तीन धातू, अथवा पदार्थ किंवा ईश्वर, जीव व प्रकृती किंवा कर्मेन्द्रिये, ज्ञानेन्द्रिये व अन्तरिन्द्रिये (मन इत्यादी) ३३ देव = उत्तम, मध्यम व अधम भेदाने अकरा इन्द्रिये ३३ देव आहेत. पाच कर्मेन्द्रिये, पाच ज्ञानेन्द्रिये व एक मनच अकरा इन्द्रिये देव आहेत. परमेश्वर जेव्हा यांच्यावर कृपा करतो तेव्हा यांचा प्रकाश पडतो त्यामुळेही तो पूज्य देव आहे. ॥९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तस्य व्यापकतां दर्शयति ।

    पदार्थः

    अग्निः सर्वाधार ईशः । त्रिधातूनि=त्रयो धातवः पदार्था ईश्वरजीवप्रकृतिरूपा येषु तानि त्रिधातूनि । त्रीणि जगन्ति । आक्षेति=आक्रम्य निवसति । यानि । विदथा=वेदनीयानि= विज्ञातव्यानि । स पुनः । कविः । सः । त्रीन्+एकादशान्= त्रयस्त्रिंशद्देवान् । इह । यक्षत्=यजतु=ददातु । च पुनः । नः=अस्मान् । पिप्रयत् । प्रपूरयतु । स पुनः । विप्र=सर्वज्ञः । दूतः । परिष्कृतः=परितः कर्ता । शेषं पूर्ववत् ॥९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    पुनः उसकी व्यापकता दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (कविः) महाकवि सर्वज्ञ (अग्निः) सर्वाधार जगदीश (विदथा) विज्ञातव्य और (त्रिधातूनि) ईश्वर, जीव और प्रकृतिरूप तीन पदार्थों से युक्त (त्रीणि) तीनों लोकों में (आक्षेति) निवास करता है, (विप्रः) पुनः परम ज्ञानी (दूतः) दूत के समान सर्वतत्त्वज्ञ और (परिष्कृतः) सर्वत्र कर्तृत्व से प्रसिद्ध (सः) वह जगदीश (त्रीन्+एकादशान्) तेंतीसों देवों को (इह+यक्षत्+च) इस संसार में सब प्रकार के दान देवें और (नः) हम उपासकों को भी (पिप्रयत्+च) समस्त कामनाओं से पूर्ण करें ॥९ ॥

    भावार्थ

    त्रिधातु=पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक ये तीनों धातु अर्थात् पदार्थ । अथवा ईश्वर, जीव और प्रकृति । अथवा कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय और अन्तरिन्द्रिय (मन आदि) ३२ देव=उत्तम, मध्यम और अधम भेद से एकादश इन्द्रिय ही ३३ देव हैं । पञ्चकर्मेन्द्रिय, पञ्चज्ञानेन्द्रिय और एक मन, ये ही एकादश (११) इन्द्रिय देव हैं । परमात्मा ही जब इन पर कृपा करता है, तब इनका प्रकाश होता है । अतः इस कारण भी वही पूज्यदेव है ॥९ ॥

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    विषय

    देहाग्निवत् विद्वान् के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( अग्निः त्रिधातूनि आ क्षेति ) अग्नि तत्व तीनों तैजस रूप से धातुओं की तीनों प्रकारों में रहता है, और वह (त्रीन् एकादशान् यक्षत् पिप्रयञ्च ) ३३ (तैंतीस) पदार्थों को बल देता और तृप्त करता है उसी प्रकार ( अग्निः ) अग्रणी तेजस्वी पुरुष वात पित कफ़ के बनी तीनों कोटियों में (आ क्षेति) अपने आप विराजता है, वह (कवि:) क्रान्तदर्शी होकर ( विदथा ) ज्ञान करता और प्राप्त करने योग्य पदार्थों को प्राप्त करता है। (सः) वह (इह) इस राष्ट्र में ( त्रीन् एकादशान् पक्षत् ) तीनों ग्यारह (तैंतीस) अधिकारियों को सुसंगत करता और (पिप्रयत् च) पूर्ण तृप्त करता, वह ( दूतः ) शत्रुओं का सन्तापक ( परिष्कृतः ) सुसज्जित, ( विप्रः ) विद्वान् पुरुष ( नः यक्षत् पिप्रयत् च ) हमें भी दे और पालन करे। इस प्रकार उसके ( समे अन्यके नभन्ताम् ) समस्त शत्रु नाश को प्राप्त होवें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभाकः काण्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३, ५ भुरिक् त्रिष्टुप्॥ २ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६—८ स्वराट् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ९ निचृज्जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    विप्रः दूतः परिष्कृतः

    पदार्थ

    [१] (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु (त्रिधातूनि) = शरीर, मन व बुद्धि-तीनों को धारण करनेवाले (त्रीणि विदथा) = तीनों 'ऋग्-यजु-साम' रूप ज्ञान की वाणियों में (आक्षेति) = सदा से निवास करते हैं । (कविः) = वे प्रभु ही इस वेदरूप काव्य के कवि हैं 'देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति । ' [२] (सः) = वे प्रभु (त्रीन् एकादशान्) = तीन गुणा ग्यारह अर्थात् तैंतीस देवों को (इह) = इस जीवनं में (यक्षत्) = संगत करते हैं, (च) = और (नः पिप्रयत्) = हमें प्रीणित करते हैं अथवा हमारी सब कामनाओं का पूरण करते हैं। वे प्रभु (विप्रः) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले हैं, (दूतः) = ज्ञान का सन्देश देनेवाले हैं तथा (परिष्कृतः) = [परिष्कृतम् अस्य अस्ति] पूर्ण परिष्कार व शुद्धि को करनेवाले हैं। प्रभु के अनुग्रह से (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ:- प्रभु सर्वज्ञ हैं, वे सब देवों को हमारे साथ संगत करते हैं। ज्ञान देकर हमारा पूरण व परिष्कार करते हैं।

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