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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 33
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    तत्ते॑ सहस्व ईमहे दा॒त्रं यन्नोप॒दस्य॑ति । त्वद॑ग्ने॒ वार्यं॒ वसु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । ते॒ । स॒ह॒स्वः॒ । ई॒म॒हे॒ । दा॒त्रम् । यत् । न । उ॒प॒ऽदस्य॑ति । त्वत् । अ॒ग्ने॒ । वार्य॑म् । वसु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्ते सहस्व ईमहे दात्रं यन्नोपदस्यति । त्वदग्ने वार्यं वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । ते । सहस्वः । ईमहे । दात्रम् । यत् । न । उपऽदस्यति । त्वत् । अग्ने । वार्यम् । वसु ॥ ८.४३.३३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 33
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of strength and life’s challenges, omnificent giver, of you we pray for that gift of generous wealth, honour and excellence of our choice and heartfelt preference which never diminishes, never fails.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आपल्या पुरुषार्थाने लौकिक धनाचे उपार्जन करावे; परंतु विज्ञानरूपी धन त्या जगदीश्वराला मागावे. ॥३३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे सहस्वः महाबलिष्ठ यद्वा जगत्कर्तः परमात्मन् ! यत् । ते=तव धनम् । न उपदस्यति=न कदापि उपक्षीयते विज्ञानरूपं मोक्षस्वरूपं वा धनम् । तत् । दात्रं=दानीयम् । वार्य्यम्=वरणीयम् । वसु=धनम् । त्वत्=त्वत्तः । हे अग्ने ! ईमहे=याचामहे ॥३३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (सहस्वः) हे महाबलिष्ठ यद्वा हे जगत्कर्त्ता ! (अग्ने) हे सर्वाधार ईश ! (यत्) जो (ते) आपका धन (न+उपदस्यति) कदापि क्षीण नहीं होता अर्थात् विज्ञानरूप वा मोक्षरूप धन है, (तत्) उस (दात्रम्) दानीय (वार्य्यम्) वरणीय=स्वीकरणीय (वसु) धन को (त्वत्) आप से (ईमहे) माँगते हैं ॥३३ ॥

    भावार्थ

    अपने पुरुषार्थ से लौकिक धन उपार्जन करे, परन्तु विज्ञानरूप धन उस जगदीश्वर से माँगे ॥३३ ॥

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    विषय

    अविनाशी ऐश्वर्य का स्वामी प्रभु। (

    भावार्थ

    हे ( सहस्व ) सब से महान् प्रभो ! बलवन् ! ( यत् ) जो ( ते ) तेरा ( वार्यं वसु ) सर्वश्रेष्ठ ऐश्वर्य कभी ( न उप-दस्यति ) नष्ट नहीं होता हम ( तत् ते दात्रं ) वह तेरा दातव्य दान हम ( त्वत् ईमहे ) तुझ से मांगते हैं। इति पञ्चत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'दात्रं वार्यं वसु'

    पदार्थ

    [१] हे (सहस्व:) = बलवान् (अग्ने) = प्रकाशमय प्रभो ! हम (ते) = आपके (तत्) = उस (दात्रं) = दातव्य धन को (ईमहे) = माँगते हैं (यत्) = जो (न उपदस्यति) = कभी क्षीण नहीं होता अथवा हमारी क्षीणता का वह धन कारण नहीं बनता। [२] हे अग्ने ! (त्वत्) = आपसे हमें (वार्यं वसु) = वरणीय धन ही प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के उपासन से हम वरणीय, दान देने योग्य धन को प्राप्त करते हैं। अगले सूक्त के ऋषि भी 'विरूप आङ्गिरस' ही हैं-

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