Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 12
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒ग्निः प्र॒त्नेन॒ मन्म॑ना॒ शुम्भा॑नस्त॒न्वं१॒॑ स्वाम् । क॒विर्विप्रे॑ण वावृधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । प्र॒त्नेन॑ । मन्म॑ना । शुम्भा॑नः । त॒न्व॑म् । स्वाम् । क॒विः । विप्रे॑ण । व॒वृ॒धे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निः प्रत्नेन मन्मना शुम्भानस्तन्वं१ स्वाम् । कविर्विप्रेण वावृधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । प्रत्नेन । मन्मना । शुम्भानः । तन्वम् । स्वाम् । कविः । विप्रेण । ववृधे ॥ ८.४४.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 38; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, omniscient visionary of existence, gracious and refulgent by virtue of ancient and eternal light of knowledge and age-old songs of the poet, is exalted along with the celebrant.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    याचे तात्पर्य असे की, मनाने व प्रेमाने ध्यात, गीत, स्तुत झाल्यावर तो (ईश्वर) प्रसन्न होतो व त्या उपासकाबरोबर सदैव निवास करतो. ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    परमात्मा कथं प्रसीदतीत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    प्रत्नेन=पुराणेन=नित्येन । मन्मना=मननीयेन स्तोत्रेण मनसा वा ध्यातः । कविरग्निः । स्वां=तन्वं स्वीयामुपासकतनुम् । शुम्भानः=प्रकाशयन् । विप्रेण=मेधाविनोपासकेन वावृधे=वर्धते तिष्ठतीत्यर्थः ॥१२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा कैसे प्रसन्न होता है, इस ऋचा से दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (प्रत्नेन) पुरातन नित्य (मन्मना) मननीय स्तोत्र से अथवा मन से ध्यात वह (कविः+अग्निः) महाज्ञानी कवीश्वर सर्वाधार ईश्वर (स्वाम्+तन्वम्) स्वकीय उपासक की तनु को (शुम्भानः) प्रकाशित करता हुआ (विप्रेण) उस उपासक के साथ (वावृधे) रहता है ॥१२ ॥

    भावार्थ

    इस का तात्पर्य्य यह है कि मन से और प्रेम से ध्यात, गीत, स्तुत होने पर वह प्रसन्न होता है और उस उपासक के साथ सदा निवास करता है ॥१२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विद्वान् अग्नि।

    भावार्थ

    ( अग्निः ) अग्रणी वा ज्ञानी ( कवि: ) क्रान्तदर्शी पुरुष ( प्रत्नेन मन्मना ) अनादि ज्ञान वेद से ( स्वां तन्वं शुम्भानः ) अपने देह, मुख आदि को सुशोभित करता हुआ ( विप्रेण ) विद्वान् पुरुष के संग से ( ववृधे ) बढ़ता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु आत्मा हों, हम प्रभु के शरीर

    पदार्थ

    [१] (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु (प्रत्नेन मन्मना) = सनातन वेदरूप ज्ञानज्योति से (स्वाम् तन्वम्) = अपने शरीरभूत इस जीव को (शुम्भानः) = शोभित करते हैं। हमारे अन्दर प्रभु का वास है। सो हम प्रभु के शरीररूप हैं। प्रभु इस शरीर को सनातन ज्ञानज्योति से सुशोभित करते हैं। जो भी प्रभु का शरीर बनेगा, वह ज्ञानज्योति से दीप्त जीवनवाला बनेगा। [२] ये (कविः) = क्रान्तदर्शी - सर्वज्ञ प्रभु विप्रेण ज्ञानी पुरुष से (वावृधे) = स्तुतियों के द्वारा बढ़ाए जाते हैं। प्रभु का स्तवन करता हुआ यह ज्ञानी अपने अन्दर प्रभु की दिव्यता को धारण करता है। यही प्रभु का वर्धन है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने अन्दर प्रभु को बिठावें । प्रभु हमें ज्ञानदीप्त बनाएँगे। इस प्रकार हमें दिव्यता प्राप्त होगी।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top