ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 13
ऊ॒र्जो नपा॑त॒मा हु॑वे॒ऽग्निं पा॑व॒कशो॑चिषम् । अ॒स्मिन्य॒ज्ञे स्व॑ध्व॒रे ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्जः । नपा॑तम् । आ । हु॒वे॒ । अ॒ग्निम् । पा॒व॒कऽशो॑चिषम् । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । सु॒ऽअ॒ध्व॒रे ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्जो नपातमा हुवेऽग्निं पावकशोचिषम् । अस्मिन्यज्ञे स्वध्वरे ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्जः । नपातम् । आ । हुवे । अग्निम् । पावकऽशोचिषम् । अस्मिन् । यज्ञे । सुऽअध्वरे ॥ ८.४४.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 38; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 38; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
In this noble yajna of love free from violence, I invoke and celebrate the unfailing master and protector of energy, blazing with holy light and fire of purity.
मराठी (1)
भावार्थ
अध्वर व यज्ञ दोन्ही शब्द एकाच अर्थाचे आहेत. तरी येथे विशेषणाप्रमाणे अध्वर शब्द प्रयुक्त झालेला आहे. याचा भाव असा की, ईश्वर बलदाता आहे. त्याच्या उपासनेने महान बल प्राप्त होते. ॥१३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
स्वध्वरे=अन्यैरत्यन्तमहिंस्ये हिंसारहिते वा । अस्मिन् यज्ञे=ध्यानयज्ञे । अग्निं=सर्वाधारमीशमाहुवे=आह्वयामि स्तौमि । कीदृशम् । ऊर्जः=बलस्य । नपातं न पातयतीति नपातः । किन्तु बलस्य वर्धकमेव । पुनः । पावकशोचिषम्=पवित्रतेजस्कम् ॥१३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अस्मिन्) इस (स्वध्वरे) हिंसारहित अथवा अहिंस्य (यज्ञे) ध्यानयज्ञ में (अग्निम्) सर्वाधार महेश की (आहुवे) स्तुति करता हूँ जो देव (ऊर्जः+नपातम्) बल और शक्ति का वर्धक है और (पावकशोचिषम्) पवित्र तेजोयुक्त है ॥१३ ॥
भावार्थ
अध्वर और यज्ञ दोनों शब्द एकार्थक हैं, तथापि यहाँ विशेषणवत् अध्वर शब्द प्रयुक्त हुआ है । भाव इसका यह है कि ईश्वर बलदाता है, उसकी उपासना से महान् बल प्राप्त होता है ॥१३ ॥
विषय
नायक अग्नि।
भावार्थ
( अस्मिन् सु-अध्वरे यज्ञे ) इस अविनाशी, प्रबल यज्ञ में, (पावक-शोचिषम् ) पवित्रकारक दीप्ति वाले ( ऊर्जः नपातम् ) बल के उत्पादक, बल पराक्रम को न गिरने देने वाले, ( अग्निं ) अग्रणी नायक पुरुष को ( आहुवे ) आदरपूर्वक बुलाऊं और प्रमुख रूप से स्वीकार करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
ऊर्जोनपातम् पावकशोचिषम्
पदार्थ
[१] मैं (अस्मिन्) = इस (स्वध्वरे) = उत्तम हिंसारहित कर्मोंवाले (यज्ञे) = जीवनयज्ञ में (अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु को (आहुवे) = पुकारता हूँ- प्रभु से याचना करता हूँ। [२] वे प्रभु (ऊर्जो नपातं) = हमारी शक्ति को विनष्ट नहीं होने देते। (पावकशोचिषम्) = प्रभु पवित्र ज्ञानदीप्तिवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का स्मरण हमें शक्तिसम्पन्न व पवित्र ज्ञानदीप्तिवाला बनाएगा।
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